पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/५२२

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मनमृगोपाख्यानयोगोपदेशवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६, (१४०३) छोडता है, तब वह सुधी हो जातीहै, तैसे जिसको समाधिविषे साक्षात्कार हुआ तब उसको उत्थानकालविषेभी वहीभासता है,अरु जिसको उसका प्रमाद है, तिसको जगत् भासता है । हे रामजी । वस्तु एकहैं, परंतु तिस विषे दो दृष्टि हैं, जैसे जेवरीएकहै, सम्यकदर्शीको जेवरी भासती है, अरु असम्यक्दको सर्प हो भासता है, जैसे ज्ञानवानको आत्मा भासताहै, अरु अज्ञानीको जगत् भासताहै, जिसपुरुषने ज्ञानकारि जगत्कोअसत् नहीं जाना तिसको ऐसे जान जो चित्रकी अग्नि है, तिसकारकै कोई कार्य सिद्ध नहीं होता, न शीतही दूर होतीहैं, अरु जिसको स्वरूपकी इच्छा है, अरु तृष्णाके नाश करनेका प्रयत्न करता है, अरु जगतको मिथ्या विचारता है, सो विचार कियेते आत्मपदको प्राप्त होवैगा, अरु तृष्णा भी तिसकी निवृत्त हो जावेगी ॥ हे रामजी! ज्ञानवान्की तृष्णा स्वाभाविक मिट जाती है, जैसे सूर्यके उदय भये अंधकार मिटिजाताहै, तैसे वस्तुकी सत्ताकरि तिसकी तृष्णा नष्ट हो जातीहै, अरु परमपदविषे स्थित होता है । हे रामजी । जिसको दृश्यविष निरसता है, सो उत्तम पुरुष है, सो मनुष्य शरीरको पायकरि ब्रह्म होता है, तिसको मेरा नम: स्कार है, वह मेरा गुरु है । हे रामजी ! जब इसकी बुद्धि विषयते विरस हुई, तब कल्याण हुआ, वैराग्यकारकै बोध होता है, अरु बोधकरिकै वैराग्य होता है, परस्पर दोनों संबंधी हैं, जब एक आता है, तब दूसरा आता है, जब यह आते हैं, तब तीनों ईषणा निवृत्त होजाती हैं,जब तीनों ईषणा गईं तब अमृतकी प्राप्ति होती है, सो कैसे प्राप्त होती है, श्रवण कर, संतका संग करना अरु सच्छास्त्रका श्रवण करना, तिसकार अपने स्वरूपका अभ्यास करना इसकार आत्मपदकी प्राप्ति होती है,यह तीनोंश्रेष्ठ परस्परही एक हैं, जैसे अष्ट चरणवाला कीट होता है,जो प्रथम चरणको राखिकार अपर चरणको राखता है,तब सुखेन चला जाता है, तैसे संतके संग अरु सच्छास्त्रके श्रवणकारिआत्मपदकाअभ्यास करता है,तबशीघ्रही आत्मपदको प्राप्त होता है, अरु जगत्का अभाव हो जाताहै । हे रामजी जगत्के भाव अरु अभावको ज्ञानी जानता है, जैसे जाग्रत स्वप्न सुषुप्तिको तुरीयावाला जानताहै, तैसे जगतके भावअभावको ज्ञानीजानता