पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/५२३

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(१४०४ ) योगवासिष्ठ ।। है, जैसे अग्निविषे सूखातृण डारा दृष्टनहीं आता, तैसे ज्ञानवान्को जगत् दृष्ट नहीं आता ॥ हे रामजी । ज्ञानवान्को सर्वदा समाधि है, उत्थान कदाचित नहीं होता, जबलग उस पदको प्राप्त नहीं भया, तबलग साधनाविषे जुडता रहे,जब उस पदको प्राप्त भया, तब फिर यत्न कोऊ नहीं रहता ॥ हे रामजी । इस चित्तके दो प्रवाह हैं, एक जगत्की ओर जाता है, अरु एक स्वरूपकी ओर जाताहै, जो जगतकीओर जाताहै, सो उपाधिक है, अरु जो स्वरूपकी ओर जाताहैं सोउपाधिको दूर करणेहरा हैं, जैसे एक लकडी गीली होती है,अरु एक सूखी होती है,जोगीली तिस विषे उपाधि जल है, तिसकार विस्तारको पाती है, जब जलनष्टहोजाता है, तब शुद्ध होती है,बहुरि प्रफुल्लितनहीं होती,तैसे संसारकीसत्यताकरि चित्त वृद्ध होता है,जब संसारकी वासना नष्ट होतीहैतब शुद्धपदकोपाता है । हे रामजी वाद जो करते हैं, सो दो प्रकारके,एक वाद जोकिमीको दुःख देवै सो मूर्ख करते हैं, अरु जो परस्पर मित्रभावकारिकै- तत्त्वका निरूपण करना सो ज्ञानवान करते हैं, जैसा वाद करता है तिसका दृढ़ अभ्यास करता है तैसाही रूप होजाता है,जो कष्टझगडा करताहै तिसका वहीरूप हो जाता है अरु जब स्वरूपका बाद मित्रताकारकै करताहै तब वहीरूप होता है, उस पदको पायकार परमशांतिको प्राप्त होता है । इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे मनमृगोपाख्यानयोगोपदेशवर्णन नाम शताधिकपंचषष्टितमः सर्गः ॥: १६६ ॥ 4444 55०१६ । इति पूर्वार्द्ध समाप्तम्.. म 41 44 । o, 3 23, Easak654 85 8612 2018 | 4