पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/५२४

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-- - | श्रीपरमात्मने नमः ।। अथ श्रीयोगवासिष्ठे । निर्वाणप्रकरणे उत्तरार्द्ध प्रारभ्यते ।। शताधिकषट्षष्टितमः सर्गः १६६. स्वभावसत्तायोगोपदेशवर्णनम् । वसिष्ठ उवाच ।। हे रामजी ! जिस पुरुषने समाधानरूपी वृक्षके फलको जानकारि पान किया है, अरु तिसको पचाया है, उसको परम स्थिति प्राप्त होतीहै, जैसे पंख टूटेते पर्वत स्थित हो रहे हैं, तैसे यह तृष्णारूपी पखके टूटेते स्थित हो जाता है । हे रामजी ! जब उसको फल प्राप्त होता है, तब चित्त भी आत्मरूप हो जाता है, जैसे दीपक निर्वाण होता है, तब जाना नहीं जाता कि कहां गया, तैसे आत्मपदके प्राप्त हुए चित्त भिन्न होकरि दिखाई नहीं देता ॥ हे रामजी! जबलग वह अकृत्रिम आनंद प्राप्त नहीं भया, अरु तिस पदविषे विश्रांति नहीं पाई, तबलग शांति प्राप्त नहीं होती. कैसा पद हैं, जो निर्गुण हैं, अरु शुद्ध है, स्वच्छ है, परम शांत हैं, जब तिस पदविषे स्थिति होती है, तब परम समाधि हो जाती है, ऐसा त्रिलोकीविषे कोऊ नहीं जो तिसको उतारै, जैसे चित्रकी मूर्ती होती है, तैसे उसकी अवस्था होती है, चेष्टा भी सब होती है, परंतु इच्छाते रहित है, जैसे पेखते रहित पर्वत स्थित होता हैं, तैसे मन अमन हो जाता है, अरु शति पदुको प्राप्त होताहै ।। हे रामजी । जिसके मनविषे संसारका अभाव हुआ है, सो शांत पदको प्राप्त होता है, अरु जो वासनासंयुक्त है, तब मन हैं, जिस क्रमकारकै अरु जिस युक्तिकारकै इसकी वासनाक्षय होवै, सो इसको कर्तव्य है। हे रामजी 1 जब वासना क्षय होती है, तब बोधरूपी शेष रहता है, जिस