पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/५२८

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मोक्षोपदेशवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तराई ६. (१४०९) स्थित भयो, तव निर्मल होता है । हे रामजी ! जब भोगकी इच्छा त्यागी, तव वडी शोभाको धारता है, जैसे सुवर्ण अग्निविषे पाया, तब मैल जल जाता है, अरु उज्वल रूपको धारता है । हे रामजी ! भोगरूपी वडा विष है, तिसको दिनदिनाविषे त्याग करना विशेष है, जब तृष्णाका त्याग करता है, तब सुख भी वडी शोभाकार शोभता है, जैसे राहु दैत्यते रहित हुआ चंद्रमाका सुख शोभा पाता है, वैसे तृष्णाके वियोग हुए पुरुषको मुखशोभता है॥हे रामजी ! जब इसको भोगते वैराग्य होता है, तब दो पदार्थकी प्राप्ति होती है,जैसे नूतन अंकुरके दो पत्र होते हैं, तैसे एक संतकी संगति अरु एक सच्छास्त्रका विचार प्राप्त होता है, अरु तिनविषे दृढ भावना होती है, तव अभ्यासकारकै वहीरूप होता है, अरु परमानंदरूप होता है, जिसको वाणीकी गम नहीं तव भेगकी इच्छाते मुक्त होता है, अरु परमशांतिसुखको पाता है, जैसे पिंजरेस निकासकार पक्षी सुखी होता है, तैसे सुखी होता है ॥ हे रामजी ! इसको भोगकी इच्छाने दीन किया है, जब इच्छा निवृत्त होता है, तव गोप की नई संसारसमुद्रको लंधि जाता है, अरु तीनों जगत् सुखे तृणकी नाई भासते हैं ॥ हे रामजी ! जब भोगकी इच्छा त्यागी, तब यह ईश्वर हुआ, जिस पुरुषको आत्मसुख प्राप्त हुआ है, सो भोगकी इच्छा कदाचित् नहीं करता, जव भौग आन प्राप्त होते हैं, तब भी उसको विरस भासते हैं, अरु मिथ्या भासते हैं, ताते भोगको नहीं चाहता, जैसे जालतै निकसा हुआ पक्षी बहुर जालको नहीं चाहता, तैसे वह पुरुष भोगको नहीं चाहता, जब विषयकी तृष्णा निवृत्त होती है, तव परम शोभाको धारता है, संतका वचन उसको शीघही प्रवेश करता है ॥ हे रामजी 1 मोक्षरूपी स्त्री है, अरु तिसके कानके भूषण संतकी संगति है, जव साधुकी संगति होती है, तब अशुभ क्रियाका त्याग हो जाता है, अरु विराने धनकी इच्छा नहीं रहती, अरु जो कछु अपना होता है। तिसकोभी त्यागनेकी इच्छा करता है, अरु भले भोग जो पानेनिमित्त आते हैं, तिनको विभाग देकर खाता है, जो कुछ होता है, तिसविरे भी देकर खाता है, बडे उत्तम भोगते लेकर सागपर्यंत देकार खाता