पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/५२९

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(१४१०) योगवासिष्ठ । है, यथाशक्ति प्रमाण जब यह ऐसे हुआ, तब फेर ऐसे हो जाता है, जब कोऊ शरीर माँगै, तव शरीर भी देता है, काहेते जो देनेका अभ्यास हो जाता है, अरु लोकते साग माँगनेकी इच्छा भी नहीं रखता, तिसकार संतोषसाथ यथाप्राप्त चेष्टा करता है, तप करता है, दान करता है, यज्ञ व्रत ध्यानकर पवित्र रहता है। अरु तृष्णाका त्याग किया हैं । हे रामजी ! ऐसा दुःख क्रूर नरकविषे भी नहीं, जैसा दुःख तृष्णाकरिके होता है, अरु जो धनवान हैं, तिनको धनकी चिंता बहुत रहती हैं। उपजानेकी चिंता है, अरु राखनेकी चिंता है, उठते बैठते खाते पीते चलते सोते सदा धनकी चिंता रहती है, इसही चिंताविषे मचि मचि मरि जाते हैं, बहुरि जन्मते हैं ॥ है रामजी ! निर्धनको भी चिंता रहती है, परंतु थोडी होती है, जवलग चिंता रहती है, तबलग दुःखी रहता है। जब चिंता नष्ट हुई, तब परम सुखी होता है । हे रामजी! यद्यपि धनी होवे, अरु संतोष नहीं, तब परमद्ररिद्री है, अरु जव धनते हीन है, परंतु संतोष है, तब परमईश्वर है, जिसको संतोष है, तिसको विषय बंध नहीं कर सकते ॥ है रामजी ! जवलग धनकी इच्छा नहीं करी तवलग इसको भौगरूपी विष नहीं लगता, जब धनकी इच्छा उपजी, तव परमविष इसको स्पर्शकार जाता है, इसको विपरीत भावनाविषे दुःख होता है, जो दुःखदायक पदार्थ हैं, तिनको सुखदायक जानता है ॥ हे रामजी जो कछु अर्थ है, सोई अनर्थ है, जिसको इसने संपदा जाना है, सो आपदा है, जिनको इसने भोग जाना है, सो सब रोगरूप हैं, इनको संपदा जानकरि विचरता है, इसकार बडा दुःखी होता है । हे रामजी रसायन सब दुःखका नाश करता है, परंतु यह देवताके पास होती है, अरु जब इसको अमृत चाहिये, तब संतोष परमरसायन है, जब विषयविषे दोषदृष्टि हुई, अरु संतोषको धारा, तब मूर्खता इसते दूर हो जाती है। अरु गोपकी नई संसारसमुद्रको शीघही तरिजाता है, जैसे गोपदको सुगमही कंघा जाता है। तैस संसारसमुद्रको सुगमतासे तार जाता है॥हे रामजी! जिसको संतोष प्राप्त होता है, तिसको परम शांति होती है, अरु वसंत ऋतु भी सुखका