पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/५३१

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(१४१२) योगवासिष्ठ । इसीको परमपद पंडित कहते हैं, सो यह पद कैसे प्राप्त होता है श्रवण करु ॥ हे रामजी ! जब इसको संसारते वैराग्य होवै, अरु संतकी संगति अरु सच्छास्त्रोंके अर्थ हैं, इनविषे दृढभावना होवे, जब आत्माविषे दृढभावना भई, तव जगत् विरस हो जाता है. अर्थ यह कि, जगत् असत्य भासता है, अरु हृदयविषे शांति होती है, अरु स्वाभाविक आपको ब्रह्म जानने लगता है, परिच्छिन्नता मिटि जाती है, जवलग आपको परच्छिन्न जानता था, तबलग सव दुःखका अनुभव करता था, जब संतकी संगति अरु सच्छास्त्रकरि जगत् विरस हुआ, तब परमपदको प्राप्त होता है ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे मोक्षोपदेशावर्णनं नाम शताधिकसप्तषष्टितमः सर्गः ॥ १६७॥ शताधिकाष्टषष्टितमः सर्गः १६८. विवेकदूतवर्णनम् ।। वसिष्ठ उवाच॥हे रामजी यह जो क्रम है सो जब संसारते वैराग्य होता है, * तब संतकी संगति होती है, वहुर शास्त्रका श्रवण होता है,तब संपूर्ण जगत् विरस हो जाता है जब जगत् विरस हुआ अरु आत्माविषे दृढ अभ्यास हुआ तबअपनी स्वभावसत्ता प्रकाश आती है जब उसी स्वभावसत्ताविष स्थित हुआ, तब परमानंदकी प्राप्ति होती है, जिसविषे वाणीकी गम नहीं ॥ हे रामजी ! जब यह अवस्था प्राप्त हुई, तब मन अमन हो जाता है, अरु अर्थकी तृष्णा नहीं रहती, अरु जो अपनेपास होता है, तिसको राखनेकी इच्छा नहीं करता, सहज त्याग हो जाता है, अरु पुत्र धन स्त्रियादिक सव विरस हो जाते हैं, यद्यपि इनके बीच भी रहता है तो इनविषे अहं मम अभिमान नहीं करता, जैसे पैंडोई किसी मार्गविषे आनि उतरता है, अरु मार्गवालेसाथ कुछ संवैध नहीं राखता, तैसे किसी विषयसाथ नहीं रखता, अरु जो आनच्छित इंद्वियके सुख आनि प्राप्त होते हैं, तिनविषे राग द्वेष नहीं करता, जैसे किसी पत्थर, रकी शिलापर जल चला जाता है, तिसको रागद्वेष कछु नहीं होता,