पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/५३२

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विवेकदूतवर्णन-निवाणप्रकरण, उतरार्द्ध ६. (१४१३) तैसे ज्ञानवानको रागद्वेष किसीविषे नहीं होता ।। हे रामजी ! उसके शरीरकी यह स्वाभाविक अवस्था हो जाती है, जो एकांतको चाहता है, अरु वन कंदराविषे रहनेकी इच्छा करता है, अरु अज्ञानके जो स्थान हैं, स्त्री अरु भोगके स्थान अरु रागद्वेषके स्थान इष्टे अनिष्ट सो दैवसंयोगते मुमुक्षुको आनि प्राप्त भी होते हैं, तो भी शत्रही तिसको त्यागि देता है । हे रामजी | जब वीज क्षेत्राविषे बोनेका होता है, तब तिसके आगे जो बूंटा कंटा होते हैं, सो कुल्हाडीसे काटि दूर करते हैं, तब खेत अच्छा सुंदर फलता है, वैसे जिस पुरुषको मनरूपी क्षेत्रविषे अनुभवरूपी फल देखना होवै, सो इच्छारूपी कंटक बुटेको अनिच्छारूपी कुल्हाडेसे काटै, अरु संतोषरूपी बीजको बोवै, तव क्षेत्र भी सुंदर फलैगा ॥ हे रामजी ! जब अनुभवरूपी फल इसको प्राप्त भयो, तब यह पुरुष सूक्ष्मते सूक्ष्म हो जाता है, अरु स्थूलते भी स्थूल हो जाता है, अरु सर्व आत्मा होकार स्थित होता है । हे रामजी ! जव चित्त अदृश्य होता है, तब द्वैतभावना मिटि जाती है, जब द्वैतभावना मिटी, तव चित्त अदृश्यको प्राप्त होते है, तिस चित्तको जो उपशमको सुख होता है, सो वाणीकार कहा नहीं जाता, तिसका नाम निर्वाणपद तव प्राप्त होता है, जब ईश्वरकी भक्ति करता है, अरु जब दिन रात्रि चिरकालपर्यंत भक्ति करता रहता है, तब ईश्वर प्रसन्न होता है, अरु इसको निर्वाणपदकी प्राप्ति होती है ॥ राम उवाच ॥ हे भगवन् ! सर्व तत्त्ववेत्ताविषे श्रेष्ठ वह कौन ईश्वर है, अरु उसकी भक्ति क्या है। जिसकरि प्रसन्न होता है, अरु निर्वाणिपदको प्राप्त करता है सो तत्त्व कहौ ॥ वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी । ईश्वर दूर नहीं अरु उसाविषे भेद भी कछु नहीं, अरु दुर्लभ भी नहीं, काहेते जो अनुभव ज्योति है, अरु परम बोधस्वरूप है, बहुरि कैसा है, सर्व जिसके वश है, अरु जो सर्व है, अरु जिसते सर्व है; तिस सर्वात्माको मेरा नमस्कार है । हे रामजी ! जो कोऊ पूजता है, जप, मंत्र, तप, दान, होम जो कछु कोऊ करता है सो सर्वही उसको पूजते हैं, देवता दैत्य मनुष्य जो कछु स्थावर जंगम जगत् है सो सब उसीको पूजते हैं, अरु