पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/५३३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

(१४१४) योगवासिष्ठ ।। सर्वको फल देनेहारा वही है, उत्पत्ति अरु प्रलयविषे जो कछु पदार्थ भासते हैं, सो सब उसीकर सिद्ध होते हैं, ऐसा ईश्वर है, जब तिस ईश्वरकी प्रसन्नता होती है, तब अपना एक दूत भेजता है, सो कैसा दूत है, जो शुभ क्रिया सब उसीविषे पाती हैं, अरु अतिपवित्र है ॥ राम उवाच ॥ हे भगवन् ! ईश्वर जो अद्वैत आत्मा है, अरु शुद्ध ब्रह्म है, तिसका दूत कौन है, अरु कैसे आता है, सो मुझे कहो १ ॥ वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! ईश्वर जो परमदेव है, तिसका दूत विवेक है, अरु हृदयरूपी गुफाविषे आनि उदय होता है, जव उदय होता है तब परम शोभाको प्राप्त करता है, जैसे चंद्रमाके उदय हुए आकाश शोभा पाता है, तैसे वह पुरुष शोभा पाता है । हे रामजी! जब विवेकरूपीं दूत आता है। तब इसको संसारते पवित्र करता है पवित्र कारकै देवके निकट ले जाता हैं, प्रथम वासनारूपी मैलसाथ भरा था, अरु चिंतारूपी शत्रुने बांधा था, जब विवेकरूपी दूत आता है, तब चित्तरूपी शत्रुको मारता है, अरु वासनारूपी मैलको नाश करके देवके निकट ले जाता है, जब इसको तिस देवका दर्शन होता है, तब परमानंदको प्राप्त होता है, बड़ा सुख पाता है । हे रामजी ! संसाररूपी समुद्र है, तिसविर्ष मृत्युरूपी घुमरघेर हैं, अरु तृष्णारूपी लहरी तरंग हैं, अज्ञानरूपी जल है, अरु इंद्रियारूपी तंदुए हैं, तिस समुद्रावषे यह जीव पडे हैं, जब विवेकरूपी नौका अकस्मात् इसको प्राप्त होती है, तब यह संसारसमुद्रते पार होता है ॥ है रामजी ! यह जीव प्रमाकारकै जडताको प्राप्त हुए हैं, जैसे जल शीतलताकारकै गडेकी संज्ञाको पाता है, तैसे प्रमादकरिके यह जीवत संज्ञाको पाता है, अरु वासनाके साथ आवरा गया है, जब अंतर्मुख होता है, तब उस देवके सन्मुख होता है, तब वह देव प्रसन्न होता है, सो कैसा देव है, सहस्र जिसके शीश हैं अरु सहस्र जिसके पाद हैं, अरु सहस्र भुजा हैं, अरु सहस्र नेत्र हैं, अरु सहस्र कर्ण हैं, अरु सर्वं चेष्टाका वही कत हैं, देखता सुनता बोलता चलता वही है। अरु अपने स्वभावसत्ताकरि प्रकाशता है, जैसे सव घटविषे चलनाशक्ति पवनकी है, तैसे प्रकाशशक्ति देवकी है, जब तिसके सन्मुख अंतर्मुख