पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/५३५

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(१४१६) योगवासिष्ठ । हे रामजी ! यह जगत् भी इस ऊरणेविषे है, जब शुद्ध चेतनविषे चैत्योन्मुखत्वं भया, तब इसका मनोमात्र शरीर होता है, जिसको अंतवाहक कहते हैं, अरु जब वासनाकी दृढता भई, तब अधिभूत भासने लगता है, जैसे स्वप्नविषे अपना शरीर भासता है, तैसे अपनेविषे शरीर देखने लगता है । हे रामजी ! इसको उत्थानही अनर्थका कारण है, जव यह चैत्य होता है, तब इसको अनर्थकी प्राप्ति होती है, मैं मेरा इत्यादिक जगत् भासि आता है, जब यह होवै नहीं, तब जगत भी न होवै, इसके होनेकरि जगत् भासता है, ताते मेरा यही आशीर्वाद है कि, तू चेतनताते शून्य होंवै, अहंतारूपी चेतनताते रहित अपने बोधविषे स्थित रहै । हे रामजी ! इस मनते जगत् हुआ है, सो मन अरु जगत दोनों मिथ्या हैं, रूप अवलोकन मनस्कार तीनका नाम जगव है, सो मृगतृष्णाके जलवत् मिथ्या शून्य हैं, जब इनका अभाव हुआ, तव शून्य भी नहीं रहता, केवल बोधमात्र चेतन होता है ॥ हे रामजी ! दृश्य दर्शन द्रष्टा यह तीनों भावनामात्र हैं, जब यह होते हैं; तव जगत भासता है, अरु जब अहंताका अभाव हुआ, तव आत्मपद शेष रहता है, जैसे स्वर्णविषे भूषण होते हैं, तैसे आत्माविषे जगत् है, दूसरी वस्तु कछु वनीं नहीं, वासना करिकै दृश्य भासती है, सो वासना मनते फुरी है, अरु मन अज्ञान कारकै हुआ है, जब मन अमनपदको प्राप्त होता है, तव दृश्य सब एकही रूप हो जाती है, जवलग वासना उठती है, तवलग मनविषे शांति नहीं होती, जैसे कोऊ पुरुष भैवरी लेता है, तब बल चढते जाते हैं, अरु जुव ठहरता है, तब वह बल उतर जाते हैं, तैसे जवलग चित्त वासना करिक भ्रमता है, तबलग जन्मरूपी बल चढते जाते हैं, अरु जब चित्त ठहरता है, तब जन्मका अभाव हो जाता है । हे रामजी ! जबलग चित्तका दृश्यसाथ संवैध है, तवलग कर्मते नहीं छूटता, जव चित्तका दृश्यते संबंध टूटै, तब शुद्ध अद्वैतपदको प्राप्त होता है । हे रामजी ! जब शुद्ध चिन्मात्रविषे उत्थान होता है, तव तिसका नाम चैत्योन्मुखत्व होता है, वह। अहंता दृश्यकी और फुरती जाती है, तब प्रमाद हो जाता है, अरु जड़ता होती है, जैसे