पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/५३६

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सर्वसत्तोपदेशवर्णन–निर्वाणपकरण, उत्तरार्द्ध ६. (१४१७) जल गदला हो जाता है, जैसे चित्तशक्ति प्रमादकारिकै जड़ हो जाती है, जब दृढ वासनाको ग्रहण करती है, तव अंतवाहकते अधिभूतक शरीर अपना दृष्टि आता है, वहुरि पृथ्वी आदिक भूत भासने लगते हैं, ज्यों ज्यों चित्तशक्ति वहिर्मुख फिरती जाती है,त्यो त्यों संसार होता जाता है, जव ऊरणेते रहित होकर अपने स्वरूपकी ओर आती है, तब अपना आपही भासता है, अरु द्वैत मिटि जाता है, तब परमानंद अद्वैतपद भासता है, जब पूर्ण वोध हुआ, तव द्वैत अरु एक संज्ञा भी जाती रहती है, केवल आत्ममात्र शुद्ध चैतन्य रहता है,जब ईश्वरसाथ एकता होती है, जगतकी भास चलती रहती है, जब तिस पदकी प्राप्ति होती है, तब दृश्यका अभाव हो जाता है. काहेते कि, जगत भावनामात्र है, जैसे भविष्य कालका वृक्ष आकाशविषे होवै, तैसे यह जगत् इसको अत्यंत अभाव है, कछु बना नहीं, भ्रांतिकारकै भासता है ॥ हे रामजी 1- मेरे वचनोंका अनुभव तव होवैगा, जब स्वरूपका ज्ञान होवैगा, तब यह वचन हृदयविषे आनि फुरेंगे, जैसे कथावालेके हृदयविषे कथाके अर्थ आनि फुरते हैं, तैसे यह वचन आनि फुरेंगे । हे रामजी ! जवलग यह मन फुरता है, तवलग जगत्का अभाव नहीं होता, जब मन उपशम होवे, तब जगत्का अभाव होता है, जैसे स्वप्नको स्वप्न जानता है, तव वहार स्वपके पदार्थकी इच्छा नहीं करता, जवलग सत्य जानता है, तबलग इच्छा करता है । हे रामजी ! यह जीव वासनाके आवरे हुए हैं। जव वासना क्षय होवै, तब इसीका नाम ज्ञान है, अज्ञानरूपी भूत इनको लगा है, तिसकरि उन्मत्त होनेकरि जगत् भासता है, अरु जगत्के भासनेकर नानाप्रकारकी वासना दृढ हो गई है, तिसकार दुःख पाता है, जब यह चित्त उलटकर अंतर्मुख हो, अरु दृढ भावना आत्माविषे करै, जव ज्ञानरूपी मंत्र इसको प्राप्त होता है,तब अज्ञानरूपी भूत चलता रहता है । हे रामजी ! अनुभवरूपी कल्पवृक्ष है, जैसी भावना इसविषे होती है, तैसा भान होता है । हे रामजी ! प्रथम इसका शरीर अंतवाहक था, अरु अपना स्वरूप भूला न था, आपको आत्माही जानता था, अरु जगत् अपना संकल्पमात्र भासता था, तिसका नाम अंतवाहक