पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/५३७

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(१४१८) योगवासिष्ठ । है, जब उस संकल्पविषे दृढ़ भावना हुई, तब अधिभूत भासने लगा, जब तिसविषे दृढ़ भावना हुई, तब देह इंद्रियाँ सब अपनेविषे भासने लगे, जब अपनेविषे भासे, तब इनके सुखदुःखको जानने लगा, जब जगत्के सुखदुःख इसको भासें तब सर्व आपदा इसको आय प्राप्त हुई। वास्तवते न कोऊ सुख दुःख है, न जगत है, केवल भावनामात्र है, जैसी चित्तकी भावना होती है, तैसेही आगे भासता है। हे रामजी ! जब यह भावना, उलटकार अंतर्मुख आत्माकी ओर परिणाम होवै, तब एकही बोधका भान होवे, जब एक बोधका भान इसको हुआ, तब द्वैत सव मिटि जाता है । हे रामजी ! आत्माविषे अंतवाहक भी नहीं, यह जो शंभु ब्रह्मा है, सो भी बोधस्वरूप है, जब बोधते इतर अंतवाहक कछु होता, तव भासता, सो बोधते इतर कछु पाता नहीं, अंतवाहक भी तिसीकर है। अंतवाहक कहिये जो शुद्ध चिन्मात्रविषे चैत्योन्मुख' हुआ है, अरु चित्तशक्ति फुरी है, तब तिसको पैच तन्मात्राका संबंध हुआ, यही जड चेतन ग्रंथि है, चेतन है, चित्तशक्ति अरु जड है, पंचतन्मात्रा इनका इकट्ठा होना इसका नाम अंतवाहक शरीर है, जब यह भी आत्माविषे कछु हुआ होता, तव यह वचन न होते, तात चिन्मात्र है, बना कछु। नहीं. काहेते कि, आत्मा अद्वैत है ॥ हे रामजी ! दूसरा कछु बना नहीं, भ्रमकरिकै द्वैत भासता है, जैसे सोई पुरुष शयन करता है, अरु स्वप्न भ्रमकरिके तिसको द्वैत भासता है, तैसे यह जाग्रत् भी भ्रांतिकरिके भासता है, कछु है नहों । हे रामजी ! जड है नहीं, तव इच्छा किसकी करता है। एता सुख इंद्रियोंके इष्ट भोगते नहीं होता, जेता कछु सुख उनके त्यागनेते होता है । हे रामजी ! एक यज्ञ है, जिसके कियेते पुरुष परमपदको प्राप्त होता है, सो यज्ञ तब होता है, जब एक स्तंभ गाडता है, जिसके नीचे बल करता है, जब यज्ञकरि रहता है, तब सर्व त्याग करता है, तव इसको फलकी प्राप्ति होती है, इस क्रम कियेविना यज्ञ सफल नहीं होता, सो स्तंभ क्या है, अरु बल क्या है, अरु यज्ञ क्या है, अरु त्याग क्या है, अरु फल क्या है, सो श्रवण कुरु ॥ हे रामजी ! ध्यानरूपी स्तंभ करै,जो आत्मपदका सदा अभ्यास होंवै, अरु तृष्णारूपी