पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/५४१

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(१४२२) योगवासिष्ठ । तब यह जामृत् उसको स्वम हो जाती है, तिसका नाम स्वप्न जागृत है ॥ ६॥ अरु जब बोधविषे दृढ स्थिति भई, तव इसको तुरीयापद कहते हैं, इसका नाम क्षीण जाग्रत् है ॥ ७॥ जव इस पदको प्राप्त हुआ, तब परमानंदकी प्राप्ति होती है । हे रामजी ! यह सप्त प्रकारके जीव अरु सृष्टि सवही मैं तुझको कही है। तिसको विचारिकारकै देख जो तेरा भ्रम निवृत्त हो जावै, अरु यह भी क्या कहना है, कि यह जीव है, यह सृष्टि है; सर्व ब्रह्मसत्ता है, दूसरा कछु हुआ नहीं, मनके फुरणेकरि दृश्य भासती है, मनको स्थिर कर देख तो सव शून्य हो जावेगी, अरु शुन्य भी न रहैगा, शून्यका कहना भी न रहैगा, इस गिनतीको भी स्मरण करु ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे सप्तप्रकारजीवसृवेष्टिवर्णनं नाम शताधिकसप्ततितमः सर्गः ॥ १७० ।। शताधिकैकसप्ततितमः सर्गः १७१. सर्वशत्युपदेशवर्णनम् । राम उवाच ॥ हे भगवन् ! तुम जो केवल जागृतकी उत्पत्ति अकारण अकर्मक वोधमात्रंविषे कही सो असंभव है, जैसे आकाशविषे वृक्ष नहीं संभवता, तैसे आत्माविषे सृष्टि नहीं संभवती, काहेते जो आत्मा निराकार है,अरु निष्क्रियहै, न समवायकारणहै, न निमित्तकारणहै, जैसे मृत्तिका चट आदिकका कारण होती है, तैसे आत्मा सृष्टिका समवायकारण भी नहीं कहेते कि, अद्वैत है, अरु जैसे कुलाल घटादिकका निमित्तकारण होता है, तैसे आत्मा सृष्टिका निमित्तकारण भी नहीं, काहेते कि अक्रिय है, तिस अकारणक अकर्मकविषे सृष्टि कैसे संभवै ॥ वसिष्ठ उवाच ।। हे रामजी! तू धन्य है, अब तू जागा है, आत्माविषे सृष्टिको अत्यंत अभाव है, काहेते जो निर्विकार है, निष्क्रिय है, न अंतर है,न बाहिर है, न ऊर्ध्व हैं, न अध है, केवल वोधमात्र है, तिसविषे न कोऊ आरंभ है, न परिणाम है, केवल वोधमात्र अपने आपविषे स्थित है, जैसे सूर्यकी