पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/५४२

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सर्वेशान्त्युपदेशवर्णन–निर्वाणप्रकरण, उत्तरार्द्ध ६. (१४२३) किरणोंविषे जल कल्पित है, तैसे आत्माविषे जगत् मिथ्या है ॥ महाबुद्धिवान् ! आत्मा अकारणरूप जगत् है, तिसते कार्यरूप जगत् कैसे होवै, तिसते केवल जगत् कछु उत्पन्न नहीं भया, तिसके अभावते सवका अभाव है, न कछु उपजा है, न भास होता है, उपदेश अरु तिसका अर्थ आरोपित है, अरु कछु हैही नहीं, अरु आरोपित शब्द भी जिज्ञासीके जतावनेनिमित्त कहा है, है कछु नहीं, आत्मा सदा अद्वैतरूप है ॥ राम उवाच ॥ हे भगवन् ! जव आत्माविषे सृष्टिही नहीं, तो पिंडाकार कैसे भासते हैं, उनको किसने रचा है, अरु मन बुद्धि इंद्रियाँका भान क्या होता है, चेतनको किसने मोहित किया है, भूतको स्नेह रागके बंधनकरि अरु आत्माविषे आवरण कैसे होता, सो समुझायकार कहौ । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी । न कोऊ पिंड है, न किसीने इसको किया है, न कोऊ भूत है, न किसीने इनको मोहित किया है, अरु न किसीको आवरण किया है, भ्रांति कारकै आवरण भासता है। जव आत्माको आवरण होता, तव किसीप्रकार नष्ट होता, परंतु आवरणही नहीं तव नष्ट कैसे होवै ॥ हे रामजी ! जिसको आवरण होता है, तिसका स्वरूप एक अवस्थाको त्यागकर दूसरी अवस्थाको अहण करता है, सो आत्मा तौ सदा ज्ञानस्वरूप है, अन्य अवस्थाको कदाचित् नहीं प्राप्त भया, सदा ज्यॉकी त्यों है, तिसविषे मन बुद्धि आदिक कछु वने नहीं, तव मोह कहाँ अरु आवरण कहा, सदा एकरस आत्मतत्त्व है, ज्ञानीको ऐसे भासता है, अरु अज्ञानीको नानाप्रकारका जगत् भासता है, आत्मा ज्ञानकालविषे भी एकरस है, अज्ञानकालाविषे भी एकरस है, तिसविषे दो दृष्टि होती हैं, ज्ञानदृष्टिकार सर्व आत्मा है, अज्ञानदृष्टिकरि नानाप्रकारका जगत् भासता है । हे रामजी ! जैसे एक समुद्रविषे तरंग बद्बुदे उठते हैं, अरु लीन होते हैं, सो उनका उत्पत्ति अरु लीन होना भी जलविषे है, जलते इतर कछु नहीं. तैसे जेते कछु विचार अरु इच्छा भासते हैं, सो सव आत्माविषे होते हैं, अपर दूसरी वस्तु कछु नहीं, विकार अविकार सव परमात्मतत्त्व है, अरु समुद्रविषे लहरी बुद्दे परिणामकार होते हैं, आत्मा