पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/५४३

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(१४२४ ) योगवासिष्ठ । सदा ज्योंका त्यों है नानाप्रकारके आकार भासते हैं, सो भी वहीं रूप है, जैसे स्वर्ण विषे नानाप्रकारके भूषण होते हैं, सो सव स्वर्णही है। दूसरी वस्तु कछु बनी नहीं, भ्रांतिकारिकै नानाप्रकारकी संज्ञा होती है, जैसे कोऊ पुरुष जागृत् बैठा होवे, अरु नींद आएते स्वप्नसृष्टि भासि आवै, सो जागृतके अज्ञानकार स्वप्नसृष्टि भासी है, जब निद्रा निवृत्त भई तब जागत् भासती है, सो जागृत भी परमात्वतत्त्वके अज्ञानकारि भासती है, जव तिस पदविषे जागैगा, तव जागृतद्धम निवृत्त हो जावैगा. हे रामजी ! संसार अपने ऊरनेकरिकै हुआ है, जब फुरणा दृढ भया, तब दुःख पाने लगा, जैसे बालक अपने परछाईंविषे वैताल कल्पिकरि आपही दुःख पाता है, तैसे यह जीव अपने फुरणेकरि आपही दुःख पाता है। जब आत्मबोध होता है, तब संसारभ्रम निवृत्त हो जाता है। हे रामजी ! यह संसार जो रससंयुक्त भासता है, सो भावनामात्र है, जब यही भावना उलटकर आत्माकी ओर आवै तब जगद्धम मिटि जावैगा, अरु देह इंद्रियादिक जो आत्माके अज्ञान करिकै फुरे हैं, अरु तिनविषे अहंकार हुआ है, सो आत्मभावनाकार निवृत्त हो जावैगा, जैसे वर्षाकालावधे घट्ट मेच होते हैं, जब शरत्कालं आया तव मेघ नष्ट हो जाते हैं, तैसे जब बोधरूपी शरत्काल आता है, तव अनात्मविषे आत्मअभिमानरूपी मेघ नष्ट हो जाता है, अरु परम स्वच्छता प्रगट होती है । हे रामजी ! जेता कछु जगत् पिंडरूप होकार भासता है सो सब आत्माका साक्षात्कार होवैगा, तब पिंडबुद्धि जाती रहैगी, जगत सव आकाशरूप हो जावैगा, जैसे शरत्कालविर्ष मेघकी घनता जाती रहती है, अरु आकाशरूप हो जाता है ॥ हे रामजी ! यह भ्रांतिकी कठिनता तवलग भासती है, जवलग स्वरूपते सुषुप्तिवत् है, जव जागैगा तव जगत् सब आकाशरूप हो जावैगा, जैसे स्वप्नते जाये • हुए स्वप्रजगत् आकाशरूप हो जाता है । हे रामजी ! जेते कछु विकार अरु क्षोभ अरु नानात्व भासते हैं, सो प्रमादकीर भासते हैं, जब आत्मबोध होता है, तब सच क्षोभविकार मिटि जाते हैं, सर्व प्रपंच एकताको प्राप्त होता है, द्वैतभाव मिट जाता है, जैसे