पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/५४४

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सर्वशान्त्युपदेशवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तरार्द्ध ६. (१४२५} प्रज्वलित अशिविर्ष घृत अथवा ईंधन अरु मिष्टान्न जो कछु डालिये सो एकरूप हो जाता है। तैसे जव बोधकी प्राप्ति होती है, तब सब जगत् एकरूप हो जाता है, जैसे नानाप्रकारके भूषण अग्निविषे डारियेतव एक स्वर्णही हो जाता है,अरुभूषणकी संज्ञा नहीं रहती, तैसे मनको जब आत्मबोधविषे स्थित किया, तब जगत् संज्ञा नहीं रहती, केवल परमात्मतत्त्व हो जाता है। हे रामजी | इंद्रियां जगत् तवलग भासता है जवलग स्वरूपते सोया पडा है,जब जागेगा, तव संसारकी सत्यता मिटि जावैगी, अरु इच्छा भी कोऊ न रहैगी, जैसे किसी पुरुषको स्वप्न आता है, अरु तिस स्वप्नते जागता है, तवस्वमके स्वर्णकी इच्छा नहीं करता,जो मुक्तिको प्राप्त होवै, काहेते जो उसकी सत्यता नहीं भासती तौ इच्छा कैसे करै, तैसे जवलग स्वरूपते सोया पड़ा है, तवलग संसारके पदार्थको मिथ्या नहीं जानता, तब इच्छा करता है, अरु जव जागैगा, तब सब पदार्थ विरस हो जावेंगे, जव ज्ञानकरिके जगत्को मिथ्या स्वप्नवत् जानैगा, तव इच्छा भी न करैगा ॥ हे रामजी | जीवन्मुक्तकी चेष्टा सव दृष्टि आती है, परंतु उसके हृदयविषे जगतकी सत्यता नहीं, काहेते जो आत्मानुभव उसको हुआ है, जैसे सूर्यको किरणविषे जल भासता है, जिसने सूर्यको किरणें जानी तिसको जल नहीं भासता, किरणें भासतीं हैं, अरु जिसने किरणें नहीं जानी, तिसको जल भासता है, अरु भासता दोनोंको तुल्य है, परंतु ज्ञानवान्के निश्चयविषे जगत् जलवत् नहीं, अरु अज्ञानीको जगत् जलवद् दृढ़ भासता है ॥ हे रामजी ! मनरूपी दीपक प्रज्वलित है, तिसविषे ज्ञानरूपी जल डालिये तब निवारण हो जावै, जव मन निर्वाण हुआ तब तिस पदको प्राप्त होवैगा, जहां जगत्का अभाव है, अरु अहंकारका भी • अभाव है, न शून्य है, न अशून्य है, केवल अकेवल उदय अस्त दोनों नहीं ॥ हे रामजी । जो पुरुष ऐसे पदको प्राप्त हुआ है, सो कृतकृत्य होता है, अरु रागद्वेषते रहित परमशतिपदको प्राप्त होता है, अहंकार निर्वाण हो जाता है, केवल निर्वाच्यपदको प्राप्त होता है जहाँ उत्थान कोई नहीं॥ हे रामजी ! आत्माविषे जगत् पदार्थ कोऊ नहीं, परंतु मनके संकल्पकार भासते हैं, जैसे स्तंभविषे चितेरा कल्पता है कि, एती पुतलियाँ इस स्तंभ