पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/५४५

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{१४२६) योगवासिष्ठ । विषे हैं, सो उसके निश्चयविषे हैं, स्तंभविषे पुतलियोंका अभाव है, तैसे मनके निश्चयविषे जगत है, आत्माविषे बना कछु नहीं, जिस पुरुषको मन सूक्ष्म हो गया है, तिसको जगत् स्वप्नवत् भासता है, जव.स्वप्नवत् जाना तब इच्छा किसकी करै, अरु त्याग किसका करै ॥ हे रामजी ! जगत तवलग भासता है, जवलग स्वरूपका साक्षात्कार नहीं भया, तब आत्मानुभव होवैगा, जव जगत् रससंयुक्त कदाचित् नहीं भासैगा, जैसे धूप अरु छाय इकट्ठी नहीं होती, तैसे ज्ञान अरु जगत् इकठे नहीं होते, आत्मज्ञान हुए जगत्का अभाव हो जाता है, जैसे पूर्वकाल वर्तमानकालविषे नहीं होता है, जैसे आत्माविषे जगत् नहीं होता । हे रामजी ! यह जगत भ्रमकरिकै भासता है, विचार कियेते इसका अभाव हो जाता है, अरु दृष्टा दर्शन दृश्य जो त्रिपुटी भासती है, सो मिथ्या है, जैसे निद्रा दोष करिकै स्वप्रविषे तीनों भासते हैं, अरु जागेते अभाव हो जाता है, तैसे अज्ञानकरिके यह भासते हैं, अरु ज्ञानकरिकै त्रिपुटीका अभाव हो जाता है । हे रामजी ! जैसे मनोराज्यरिकै भनविषे जगत् स्थित होता है, तैसे यह पर्वत नदियाँ देश काल जगत् भी जान, ताते इस भ्रमका त्याग कर अपने स्वभावविषे स्थित हो, यह जगत् भ्रमकरिकै उदय हुआ है, विचार कियेते नष्ट हो जावैगा, अरु प्रम शांति तुझको प्राप्त होवैगी । हे रामजी ! जिसका मन उपशमभावको प्राप्त हुआ है सो पुरुष मौनी है, वह निरोधपदको प्राप्त हुआ है, वह संसारसमुद्रको तरा है, अरु कमौके अंतको.प्राप्त हुआ है, तिसको संपूर्ण जगत् पहाड़ नदियाँ संयुक्त लीन हो जाता है, अज्ञानके नष्ट हुए विद्यमान जगत् भी वह शांत अंतःकरण है, परम शांतिरूपी अमृतकर तृप्त है, वह ज्ञानवान् निरावरण होकार स्थित होता है ॥ इति श्रीयोगवासिष्टे निर्वाणप्रकरणे सर्वशत्युिपदेशो नाम शताधिकैकसप्ततितमः सर्गः॥१७१॥