पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/५४६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

ब्रह्मस्वरूपप्रतिपादनवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तरार्द्ध ६. (१४१७) शताधिकद्रिसप्ततितमः सर्गः १७२. ब्रह्मस्वरूपप्रतिपादनम् । " राम उवाच ॥ हे भगवन् ! जिस क्रमकरि वोध आत्मा जगत्रूप हो भासता है, सो क्रम भेदके निवृत्ति अर्थ बहुरि मुझको कहौ।वसिष्ठ उवाच हे रामजी ! जेता कछु जगत् इष्ट आता है, सो चित्तविषे निश्चय होता है, ज्ञानवान्को भी चित्तकरि भासता है, अरु अज्ञानीको भी चित्तकार भासता है, परंतु एता भेद है जो अज्ञानी जगत्को देखता है, तव सत्र मानता है, अरु ज्ञानवान् शास्त्रयुक्तिकार देखता है, पूर्व अपर अर्थके विचारकार भ्रांतिमात्र जानता है,अरु अविद्याकरिकै भासता है,सो अविद्या भी कछु वस्तु नहीं, जैसे सूर्यको किरणोंविषे जल भासता है,सो कछु हैनहीं, तैसे अविद्या कछु वस्तु नहीजेता कछु स्थावर जंगम जगत् भासता है, सो कल्पके अंतविषे नष्ट हो जाता है, जैसे समुद्रते एकवृंद निकासिये तव नष्ट हो जाती है, काहेते जो विभागरूप है, तैसे माया अविद्या सत असत आदिक सर्व संवैधका अभाव हो जाता है, काहेते जो सव शब्द जगविषे हैं, जब जगत्लीन भया, तव शब्द कहाँ रहे, अरु वास्तवते न कछु उपजा है, न लीन होता है, एकही चिदाकाश है, अरु जव तू कहे देह तौ उपजी है सो देह अरु तत्त्व स्वप्नवत तू जान, अरु जो तू कहै, जगत् प्रलयविषे लीन होता है, तो कछु है क्यों, तव नाश वही होता है, जो असत्य होता है, अरु जो तू कहै, असत्य है तो वहुरि क्यों उपजता है, तब उपजी वस्तु भी सत नहीं होती, अरु जो तू कहै महाप्रलयविषे चिदाकाशही रहता है। सोई जगरूप हो भासता है, तौ जगत् कछु इतर वस्तु नहीं भया, वोधमात्रही इसप्रकार हो भासता है, जैसे वीज अरुसँवृक्षविषे कछु भेद नहीं तैसे जिसते जगत् भासता है,सो वहीरूप है,अपर कछु उपजा नहीं, जो उपजा नहीं तौ विकार अरु भेद कैसे होवै, ताते वोधमात्रही अपने आपविषे स्थित है, कारणकार्यते रहित परम शतरूप आत्मसत्ता स्थित है, वही जगहरूप होकर भास्ता है,देश काल पदार्थ सब महाप्रलयरूप हैं, जब महाप्र