पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/५४७

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(३४२८) योगवासिष्ठ । लय होता है, तब ब्रह्मदेवपर्यंत सव पदार्थ नष्ट हो जाते हैं, आकाश वायु अग्नि जल पृथ्वीका नाम भी नहीं रहता, अर्थ भी नहीं रहता, केवल वोध मात्र बोधते भी रहित शेष रहता है, परम शांतरूप है, तिसविषेवाणी अरु मनकी गम नहीं, केवल अचेत चिन्मात्रसत्ता रहती है, तिसको तत्ववेत्ते अनुभव कहते हैं, अपर कोऊ जान नहीं सकता ॥ हे रामजी ! जो पुरुष विद्यारूपी निदाते जागा है, सो निराभास होता है, अर्थ यह कि चित्तते चैत्यका संबंध टूट जाता है,अरु परम प्रकाशरूप आत्मपद् तिसको प्राप्त होता है, अरु स्वभावविर्षे स्थित होता है, परभाव जो प्रकृति है, तिसका अभाव हो जाता है। हे रामजी! जेताकछु जगत् परभावकरिकै भिन्न भिन्न भासता था, सो सव एकरूप हो जाता है, जैसे स्वप्नविषे पदार्थ भिन्न भिन्न भासते हैं,अरु जागेते सब एकरूप हो जाते हैं, अपना आपही भासता है, तैसे जब इसको आत्माका अनुभव हुआ, तव जगत् अपना आपही भासता है । हे रामजी ! एकरूप तव हो भासता है, जब अपर कछु नहीं बना, जैसे स्वर्णके भूषण अग्निविषे डारिये तव अनेक भूषणको एक पिंड हो जाता है, अरु एकही आकार भासता है, तैसे जब बोधका अनुभव हुआ, तव सर्व एकरूप हो जाता है। हे रामजी ! भूषणके होते भी स्वर्णही था, इसीते एकरूप हो गया, तैसे जब वोधका अनुभव हुआ, तव सर्वं एकरूप हो भासता है, ताते जगत्के होते भी जगत् आत्मरूप है, जगद है नहीं अरु हुएकी नाई भासता है, अरु भिन्न भिन्न दृष्टि आता है,जैसे सोम जलविषेतरंग हैं नहीं,अरु भासते हैं, तो भी जलरूप है। असम्यक्हष्टिकरके भिन्न भिन्न भासते हैं ॥हे रामजी ! ज्ञानीको जीवन्मुक्ति अरु विदेहमुक्ति तुल्य हैं जैसे भूपणके होते भी स्वर्ण है, अरु भूषणके अभाव हुए भी स्वर्ण है। तैस ज्ञानवानको देहके होते भी ब्रह्म है, अरु देहके अभाव हुए भी ब्रह्म है, अरु जो अज्ञानी है, तिसको नानाप्रकारका जगत् फुरता है, सो अज्ञानी कौन है, जिसको मनका संबंध है । हे रामजी ! यह जगत् भिन्न भिन्न फुरता है, जैसे काष्ठके स्तंभविषे चितेरा पुतलियां कल्पता है, सो अपरको नहीं भासतीं, उसीके मनविषे होती हैं, तैसे भिन्न भिन्न पदार्थरूपी पुतलियाँ अज्ञानीके मनविषे फुरतीं हैं, अरु ज्ञानवान्को नहीं भासतीं है।