पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/५४८

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निर्वाणवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तराई ६. (१४२९) अरु जब काष्ठका आकार होता है, तव चितेरा पुतलियाँ कल्पता है, अरु यह आश्चर्य देख कि, मनरूपी ऐसा चितेरा है, आकाशविषे पदार्थरूपी पुतलियाँ कल्पता है, खोदेविना भासते हैं। हे रामजी 1 अपर दूसरा कछु नहीं वना, जैसे किसी पुरुषने कागजकेऊपर पुतली लिखी होय, सो कागजरूप है, अपर कछु नहीं बनी, तैसे वह जगत् भी वहीस्वरूप है। हे रामजी । जव तुझको आत्मपदका अनुभव होवैगा, तब जेते कछु जगत्के शब्द् अर्थ हैं; सो सव उसीविषे भासँगे, जैसे जिनने स्वर्णको जाना, तिनको भूषणके शब्द अर्थ स्वर्णही भासते हैं, तैसे जब आत्मपदको जानेगा,तव तुझको जगत्के शब्द अर्थ आत्माहीविषे दृष्टि आदेंगे। हे रामजी ! यह जीव महासूक्ष्मरूप है, इन जीवविषे अपनी सृष्टि है, सो जवलग फुरना है तबलग सृष्टि है, जब सृष्टि फुरना अपनी ओर आता है, तव सर्व सृष्टि एक आत्मरूप हो जाती है, आकाश काल दिशा पदार्थ सब आत्मा है, आत्माते इतर कछु नहीं, अपने आपविध स्थित है, अद्वैत चिन्मात्र पद है ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे ब्रह्मस्वरूपप्रतिपादनं नाम शताधिकद्विसप्ततितमः सर्गः ॥ १७२॥ शताधिकत्रिसप्ततितमः सर्गः १७३. यात्र निर्वाणवर्णनम् । राम उवाच ॥ हे भगवन् ! सर्व तत्त्ववेत्ताविषे श्रेष्ठ, दृक् अरु दृश्यका संबंध कैसे हुआ है, अरु कालविषे कालत्व कैसे फुरा है आकाशविषे शून्यता कैसे हुई है, वायुविषे वायुता कैसे हुई है, जड़विषे जड़ता अरु भूतविषे भूतता अरु संकल्पविषे स्पंद अरु सृष्टिविणे सृष्टिता कैसे हुए हैं। मूर्त्तिविषे मूर्त्तिता, भिन्नविषे भिन्नता, दृश्यविषे दृश्यता किसते हुए हैं, सो मुझको कहौ. काहेते कि, अर्धप्रबुद्धको वोधके निमित्त कहना योग्य है । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! ब्रह्मा विष्णु रुद्र ईश्वरते आदिक जो सर्व पदार्थ हैं सो प्रलयकालविषे जिसमें लीन होते हैं, तिसका नाम