पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/५४९

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(१४३०) योगवासिष्ठ । प्रलय है, तिसका शब्द यह है, जो प्रलय शब्द है, अरु सव निर्वाण हो जाते हैं, यह अर्थ है । हे रामजी ! ऐसा जो अनंत आकाश है, सो सम है, अरु शुद्ध है, आदि अंतते रहित है, अरु मध्यते भी रहित है, चेतनघन अद्वैत है, जहाँ एक अरु दो शब्द भी नहीं, जिसविषे आकाश भी पहाड़वत् स्थूल है, ऐसा सूक्ष्म है, अरु है नहीं, दोनों शब्दते रहित अपने आपविपे स्थित हैं, जैसे पाषाणका शिलाकोश होता है, जैसे चित्तके ऊरणेते रहित है, ऐसे परमात्मतत्त्व अकारणते सृष्टिका उपजना कैसे कहिये, जैसे आकाश अपने आपविषे स्थित है, तैसे ब्रह्म अपने आपविषे स्थित है ॥ हे रामजी ! एक निमिषके ऊरणेकरि जो अनेक योजनपर्यंत वृत्ति जाती है, तिसके मध्य जो अनुभव करनेवाली सत्ता है, तिसविषे तू स्थित होकर देख कि, जगत् कहाँ है, अरु जगत्की उत्पत्ति कहाँ है ॥ हे रामजी ! उत्पत्ति जो होती है, सो समवायकारणकरि अरु निमित्तकारणकार होती है,सो आत्मा निराकार अद्वैत सन्मात्र है, न समवायकारण है, न निमित्तकारण है, ताते आत्मा अच्युत है, सो स्वरूपते कदाचित् नहीं गिरा, तौ समवायकारण कैसे होवे, अरु निमित्तकारण भी नहीं, जो निराकार है, ताते आत्माविषे जगत् कोई नहीं, श्रोतिमात्र भासता है, अरु अविद्याकरिकै भासता है, सो अविद्या किसका नाम है, जो वस्तु होवै नहीं, अरु प्रत्यक्ष भासै, सो अविद्याकरि जानिये ॥ हे रामजी ! ब्रह्मसत्ता सदा अपने आपविषे स्थित है, अरु तिसविषे तरंग आवर्त्त उठते हैं, सो जलरूप हैं, जलते इतर कछु। नहीं, जब तू अपने आपविषे स्थित होवैगा, तव जगत्का शब्द अर्थ • इतर न भासैगा, काहेते जो दूसरी वस्तु कछु है नहीं ॥ हे रामजी ! ब्रह्म अमूर्त है, तिसविषे यह मूर्तियां कैसे उत्पन्न होवें, ताते यह भ्रांतिमात्र है, जो वस्तु कारणते उपजी होवै, सो सत् होती है, अरु जो कारणविना ‘दृष्टि आवै, सो भ्रममात्र जानिये, जैसे आकाशविप दूसरा चंद्रमा भासता है, तिसका कोङ कारण नहीं, ताते मिथ्याभ्रमकरिके भासता है, तैसे यह जगढ़ मिथ्यामात्र है, विचार कियेते नहीं रहता ॥ हे रामजी !