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योगवासिष्ठ।

सप्तदशः सर्गः १७.

संतमाहात्म्यवर्णनम्।

भुशुण्ड उवाच॥ हे मुनीश्वर! यह चिरकालकी वार्त्ता तुमको कही है, बहुत कल्प व्यतीत भये हैं, वह सृष्टि इस सृष्टिते दूरि है, बहुत युग व्यतीत भये हैं, परंतु मैं तुमको अभ्यासके बलते वर्तमानकी नाईं सुनाया है॥ हे मुनीश्वर! मेरा कोऊ पुण्य था, सो फला है, जो तुम्हारा निर्विघ्न दर्शन हुआ है, यह जो आलय अरु शाखा हैं, अरु वृक्ष हैं, सो आज पावनताको प्राप्त हुवे हैं, जो तुम्हारा दर्शन हुआ है, अब जो कछु संशय रहता है सो पूछो, मैं कहौं॥ वसिष्ठ उवाच॥ हे रामजी! इसप्रकार कहिकरि उसने मेरा भली प्रकार आदर सहित अर्ध्यपाद्यकरि पूजन किया, तब मैं उसको कहा॥ हे पक्षियोंके ईश्वर! तेरे वह भाई कहांहै, जोतेरे समान तत्त्ववेत्ता थे, सो तौ दृष्टि नहीं आते, एकला तूही दृष्टि आताहै॥ भुशुण्ड उवाच॥ हे मुनीश्वर! यहां मुझको बहुत कालव्यतीत भया है, युगकी पंक्ति व्यतीत भई है, जैसे सूर्यको कई दिन रात्रि व्यतीत हो जाते हैं, तैसे मुझको युग व्यतीत भये हैं, केताक काल वह भी रहे थे, समय पायकार उनने शरीर त्यागि दिये, तृणकी नाईं त्यागिकरि शिव आत्मपदको प्राप्त हुये॥ हे मुनीश्वर! बडी आयुर्बल होवे, अथवा सिद्ध महंत होवै, बली होवै, अथवा ऐश्वर्यवान् होवै, काल सबको ग्रासि लेता है॥ वसिष्ठ उवाच॥ हे साधो! जब प्रलयकालका समय आता है, तब सूर्य, चंद्रमा, वायु, मेघ यह अपनी मर्यादा त्यागि देते हैं, तब बड़ा क्षोभ होता है, तुझको खेद किसी कारणते नहीं होता, सूर्यकी तप्तताकरि अस्ताचल उदयाचल आदिक पर्वत भस्म हो जाते हैं, तिस क्षोभविषे तू खेदवान् किसकरि नहीं होता॥ भुशुण्ड उवाच॥ हे मुनीश्वर! एक जीव जगत‍्विषे आधारकरि रहते हैं, एक निराधार रहते हैं, जिनको ऐश्वर्य सेनादिक पदार्थ होते हैं, सो आधारसहित हैं, अरु जो इन पदार्थते रहित हैं, सो निराधार हैं, सो दोनोंको हम तुच्छ देखते हैं, सत् कोऊ नहीं बड़े बड़े ऐश्वर्यवान् बली भी हैं, परंतु सत्य कोऊ नहीं, तिनविषे