पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/५५०

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द्वैतकताप्रतिपादनवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तरार्द्ध ६. (१४३१) आकाश काल आदिक जो पदार्थ हैं, सो सव शून्य हैं, आत्माविषे न उदय हुए हैं, न अस्त होते हैं, ज्यका त्यों आत्माही स्थित है ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे निर्वाणवर्णनं नाम शताधिक त्रिसप्ततितमः सर्गः ॥ १७३ ॥ शताधिकचतुःसप्ततितमः सर्गः १७४. द्वैतैकताप्रतिपादनम् । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! जैसे आकाश अपनी शुन्यताविषे स्थित है, तैसे ब्रह्मरूपी आकाश अपने आपविषे स्थित है, सो कैसे किसीका कारण होवे, कारण काय तब होता है, जब द्वैत होता है, अरु आरंभ परिणाम होता है, सो आत्मा अद्वैत है, अच्युत है, अरु निर्गुण है, तिसविषे आरंभ कैसे होवै ॥ हे रामजी जेता कछु जगत् तुझको भासता है, सो सव काष्ठमौन है, काष्ठमौन कहिये जहाँ मनका कुरणा शून्य है। हे रामजी ! जो कछु द्वैत भासता है, सो भ्रममात्र है, अरु जो कछु हुआ होता तौ ज्ञानीको भी प्रत्यक्ष होता,सो ज्ञानकालविषे नहीं भासता, ताते भ्रममात्र है । हे रामजी ! पृथ्वी जलते आदि लेकर जो पदार्थ है, सो इनका फेरणा स्वप्नकी नाई है, जैसे स्वमविषे चेष्टा होती है, सो पास वैठेको नहीं भासती, ताते है नहीं, तैसे सृष्टि अकारण संकल्पमात्र है। हे रामजी ! जैसे शशेके शृंगका कारण कोऊ नहीं, तैसे जगत्का कारण कोऊ नहीं, जो कछु होवै तौ कारण भी होवै, जो होवै नहीं तो किसका कारण कौन कहिये ।। राम उवाच ॥ हे भगवन् ! वटका वीज होता है, तिसविषे वृक्षका भाव होता है, कालपायकारे वीजते वृक्ष हो आता है। तैसे इस जगत्का कारण परमाणु क्यों न होवै १ ॥ वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! सूक्ष्मविषे जो स्थूल होता है, सो संकल्पमात्र होता है, मैं भी कहता हौं, सूक्ष्मविषे स्थूल होता है, परंतु संकल्पमात्र होता है, कछु सत् नहीं होता, जो कहिये सत्य होता है, तो नहीं संभवता, जैसे राइँके कणकेविषे सुमेरु पर्वतका होना नहीं संभवता, तैसे सूक्ष्म