पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/५५३

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(१४३४) योगवासिष्ठ । पद रहैगा । हे रामजी ! अव भी निर्मल पद है, परंतु भ्रमकारक पदार्थ सत्ता भासती है, जैसे निद्रादोषकरिकै केवल अनुभवविषे पदार्थसत्ता होकर भासती है, अरु जागेते कहता है, केवल भ्रममावही थे, तैसे यह जगत् भी भ्रममात्र जान;परमार्थस्वरूपके प्रसादकारिकै यह जगत् भासता है, अरु स्वरूपविष जागेते इसका अभाव हो जाता है । हे रामजी ! स्वप्नविषे अणहोत राज्य देखता है, तैसे तू यह जगत जान, इसका फुरणाही इसको बंधनका कारण है, जैसे घुराण आपही स्थान बनाती है, अरु आपही फैंस मरती है, अरु जैसे मद्यपान करनेवाला मद्यपान करिक मुखते अपरका अपर बोलता है, अरु तिसकरिके वैधायमान होता है, वैसे अपने संकल्पही करिकै बँधता है, जब संकल्प मिटै तव परमानंदको प्राप्त होंवै, अरु परम स्वच्छ शांत उदय होवे ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे परमशांतिनिवांणवर्णनं नाम शताधिकपंचसप्ततितमः सर्गः ॥ १७८॥ शताधिकषट्सप्ततितमः सर्गः १७६. आकाशकुटीवसिष्ठसमाधिवर्णनम् । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! जहाँ आकाश होता है, तहाँ शुन्यता भी होती है, अरु जहाँ आकाश होता है, तहाँ आकाश भी होता है, अरु जहाँ आकाश है, तहाँ पदार्थ भी होते हैं, तैसे जहां चेतनसत्ता है, तहाँ सृष्टि भी भासती है, परंतु कैसे भासती है, जो बनी कछु नहीं, अरू सदा रहती है, जैसे सूर्यकी किरणविषे जल कदाचित् नहीं उत्पन्न भया, अरु जलाभास सदा रहता है. काहेते कि, उसीका विवर्त है, वैसे सृष्टि आत्माको विवर्त है, जहाँ चेतनसत्ताहै, तहाँ सृष्टि भी है, इसीपर एक इतिहास तुझको कहता हौं, सो कैसा इतिहास है, जिसके सुननेते अरु समुझनेते जराभृत्युते रहित होवै, परम सुंदर इतिहास है, अरु चित्तका मोहनेहारा आश्चर्यरूप है, अरु प्रकृतरूप है, अरु मेरा देखा हुआ है । हे रामजी ! एक कालमें मेरा चित्त जगत्ते उपरत हुआ, जो किसी एकांत स्थानविषे जायकार