पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/५५४

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आकाशकुटीवासिष्ठसमाधिवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तरार्द्ध ६.(१४३५) समाधान करौं, जगत् कैसा है, जो मोहरूप व्यवहार कारकै दृढ हुआ है, अरु जेता कछु जानने योग्य है, तिसको मैं जाननेहारा हौं,परंतु व्यवहारकरिकै भी शाँतरूप होऊ, ऐसे में विचारत भया,जो निर्विकल्प समाधि करौं, अरु परम शांतिको प्राप्त होऊ जो आदि अंत मध्यते रहित परमानंदस्वरूप है, अरु अविनाशी पद है, तिसविषे विश्राम करौं ॥ हे रामजी : तव मैं भी ज्ञानवृत्तिवान् परमात्मस्वरूपही था, परंतु चित्तकी वृत्ति जव जगत्भावते उपरत भई, तिस कारणेते व्यवहारविषे भी एकति समाधिकी इच्छा करी, जहां क्षोभ कोऊ न होवे, तुहां स्थित होवें, ऐसे विचार कारकै मैं आकाशविषे उड़ा एक देवताका पर्वत था, तहाँ जाय वैठा, वहां बहुत प्रकारके इंद्रियांके विषय देखे, अंगना गायन करती हैं, अरु चमर शिरपर होते हैं, अरु मंद मंद पवन चलता है, वह विषय भी मुझको आपातरमणीय भासै, किसी कालविषे किसीको सुखदायक नहीं, समाधिवालेके यह शत्रु हैं। तिनको विरस जानकार बहुरि मैं उड़ा, एक और पर्वतकी कैदरा थी, अरु बहुत सुंदर थी, तहां आय प्राप्त भया, सुंदर वन है, अरु सुंदर पवन चलता है, ऐसे स्थानको मैं देखा, अरु मुझको शत्रुवत् भासा, काहेते जो पक्षीके शब्द होते हैं, अरु पवनका स्पर्श होता है, इत्यादिक अपर भी विषय हैं, तिनको देखिकर मैं आगे चला, नागके देश देखे, अरु सुंदर नागकन्या देखी, अरु बहुत सुंदर इंद्रियों के विषय भी देखे, सो विषय भी मुझको सर्पवत् भालैं, जैसे सर्पके स्पर्श कियेते विषकार अनर्थको प्राप्त होता है, तैसे मुझको विषय भार्से, बहुरि आगे चला ॥ है रामजी ! जेते कछु इंद्रियोंके विषय हैं, सो सव अनर्थ के कारण हैं, तिनाविषे प्रीति मूढ अज्ञानी करते हैं, वहुरि समुद्रुके किनारे गया, तिसके पास जो पुष्पके स्थान हैं, तिनविष विचरा, कंदरा अरु वनको देखत भया, पर्वत पाताल देशों दिशा देखता फिरा; परंतु एकांतस्थान मुझको कोऊ दृष्ट न आया, तब मैं वहुरि आकाशको उड़ा, आकाशविर्षे पवन अरु मेघके स्थान लंघता गया, अरु देवगण विद्याधर अरु सिद्धके स्थान लंघता गया। आगे देख तौ केई ब्रह्मांड भूतके उड़ते