पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/५५६

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विदितवेदाहंकारवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उतरार्द्ध ६. ( १४३७ } सिद्ध नहीं होती काहेते जो नानाप्रकारकी वासनासाथ अंतःकरण मलीन है, जब अंतःकरण इनका शुद्ध होवै, तब जैसा संकल्प अरै तैसा सिद्ध होवै, अरु मलिन अंतःकरणवालेका संकल्प सिद्ध नहीं होता । इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे आकाशकुटीवसिष्ठसमाधिवर्णनं नाम शताधिकषट्सप्ततितमः सर्गः ॥ १७६ ॥ शताधिकसप्तसप्ततितमः सर्गः १७७. . विदितवेदाहंकारवर्णनम् ।। राम उवाच ।। हे भगवन् ! तुम निर्वाणिस्वरूप हौ, तुमको अहंकार रूपी पिशाच कैसे फुरा, यह संशय मेरा दूर करौ ॥ वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! ज्ञानी होवै अथवा अज्ञानी होवे, जवलग शरीरका संबंध है, तवलग अहंकार दूर नहीं होता. काहेते कि, जहां आधार होता है, तहाँ आधेय भी होता है, अरु जहां आधेय होता है, तहां आधार भी होता है, तैसे जहां देह होती है, तहाँ अहंकार भी होता है, अरु जहाँ अहंकार होता है, तहां देह भी होती है । हे रामजी ! अहंकारविना शरीर नहीं रहता सो अहंकार अज्ञानरूपी वालकने कल्पा है, अरु ज्ञानीविषे जो विशेषता है सो श्रवण करु, तिसके जाननेते अहंकार नष्ट हो जाता है। हे रामजी ! यह अहंकार अविद्याकरि कल्पा है, सो अविद्या किसका नाम है, जो वस्तुते मिथ्या होवे, अरु भासै सो अविद्या है, अरु जो अविद्याही मिथ्या है तौ तिसका कार्य अहंकार कैसे सत्य होवै, यह मिथ्या भ्रमकरिके उदय हुआ है, जैसे भ्रमकारिकै वैताल वृक्षविषे भासता है, तैसे भ्रमकरिके अहंकाररूपी वैताल उदय हुआ है, अरु इसका कारण अविचार सिद्ध है, विचार कियेते इसका अभाव हो जाता है, जहाँ जहाँ विचार होता है, तहाँ तहाँ अविद्या नहीं रहती, जैसे जहाँ दीपक होता है, तहाँ अंधकार नहीं रहता, दीपकके जागेते अंधकारका अभाव हो जाता है, तैसे विचारके उदय हुए अविद्याका अभाव हो जाता है, जो