पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/५५७

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(१४३८) योगवासिष्ठ । वस्तु विचार कियेते न रहै सो मिथ्या जानिये, जो आपही मिथ्या हैं, तिसका कार्यं कैसे सत्य होवै ताते अहंकारको मिथ्या जान ।। हे रामजी! जैसे आकाशके वृक्षका कारण कोऊ नहीं, तैसे अहंकारका कारण कोऊ नहीं, मनसहित जो षट् इंद्रिय हैं। शुद्ध आत्मा तिनका विषय नहीं, काहेते कि सो साकार हैं,अरु दृश्य हैं,साकारका कारण निराकार आत्मा कैसे होंवै, जो कछु आकार है सो सब मिथ्या है, जो बीज होता है; तिसते अंकुर उत्पन्न होता है,तब जानता हैकिवीजते अंकुर उत्पन्न हुआ है, परंतु वीजही न होवै तौ तिसका कार्य अंकुर कैसे उत्पन्न होवै, तैसे जगत्का कारण संवेदनही न होवै, तौ जगत् कैसे होवै, जैसे आकाशविषे दूसरा चंद्रमा होवै तौ तिसका कारण भी मानिये, जो दूसरा चंद्रमाही न होवै, तिसका कारण कैसे मानिये । हे रामजी ! ब्रह्म आकाश अद्वैत है, अरु शुद्ध है • फुरनेते रहित है, अरु अच्युत है अविनाशी है, सो कारण कार्य कैसे होवै ॥ हे रामजी ! पृथ्वी आदिक तत्त्व सो भासते हैं, सो अविद्यमान हैं, भ्रमकारकै भासते हैं, केवल शुद्ध आत्मा अपने आपविषे स्थित है, अरु जो तू कहै अविद्यमान हैं, तौ भासते क्यों हैं, तिसका उत्तर यह है, जैसे स्वप्नविषे अनहोती सृष्टि भासती है, वैसे यह जगत् भी अनहोता भासता है, जैसे भ्रमकारकै आकाशविषे अनहोते वृक्ष भासते हैं, इसविषे आश्चर्य कछु नहीं, जैसे संकल्पनगर रचि लीजै, तव उसविषे चेष्टा भी होती है, परंतु इसका स्वरूप संकल्पमात्र है, वास्तव अथकार कछु नहीं होता, परंतु अपने कालविष सत् भासता है, जब संकल्पका लय होता है, - तव उसका भी अभाव हो जाता है, तब आकाशके वृक्षकी नाईं हुआ 'क्यों, जो आकाशके वृक्ष भावनाकरि भासते हैं, तैसे यह जगत् संकल्पमात्र है, स्वरूपते कछु नहीं, जो विचार कर देखिये तो इसका अभाव हो जाता है। हे रामजी ! शुद्ध आत्मतत्त्व अपन अपाविषे स्थित है, सोई जगत्का आकार हो भासता है, दूसरी वस्तु कछु नहीं, जैसे स्वप्रविषे जेते पदार्थ भासते हैं, सो सव अनुभवरूप हैं, तैसे जगत् भी ब्रह्मस्वरूप हैं। हे रामजी हमको सदा वहीं भासता है, तो अहंकार 'कहाँ होवे, न मैं अहंकार, न मेरा अहंकार है, केवल आकाशविषे