पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/५५९

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(१४४०) योगवासिष्ठ । है, जो राग द्वेष मलते रहित निर्मल है, परम उत्तम है, अरु अविनाशी है, आदि अंतते रहित है, यह दशा तुमने परम विभुताके अर्थ कही है । हे भगवन् ! सर्वदा काल अरु सर्वप्रकार वस्तु वही ब्रह्मसत्ता है समरूपसचाके अनुभवते परम निर्मल है,तो शिलाख्यान किस निमित्त कहा है, सो कहौ ॥ वसिष्ठउवाच ॥ हे रामजी । सर्वविषे सर्वदा काले अरु सर्वते रहित है, तिसके बोध अर्थ मैं तुझको दृष्टांत शिलाख्यान कहा है । हे रामजी ! ऐसा स्थान को नहीं, जहां सृष्टि नहीं, सर्व स्थानविषे सृष्टि भासती हैं, अरु आदिते कछु बना नहीं, अरु सर्वदाकाल वसती है,शिलाके कोशावर्षे अनेक सृष्टि भासती हैं, जैसे आकाशविषे शून्यता है, तैसे शिलाकोशविषे सृष्टि वसती हैं ॥ ॥ श्रीराम उवाच ॥ हे भगवन् । जो सर्वविषे सृष्टि वसती हैं, कुंद आदिकाविषे यह तुमने कहा तौ आकाशरूप क्यों न होवे ॥॥ वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी! यही मैं भी तेरे ताई कहता हौं; जो कछु सृष्टि है, सो सव आकाशरूप है, स्वरूपते सृष्टि तौ उपजी नहीं, सर्वदा आत्मसत्ता अपने आपविषे स्थित है, आकाशकी वार्ता क्या कहनी है, जो शिलाकोशविषे सृष्टि वसती हैं, जो आकाशरूप हैं। सो वसती हैं, अर्थ यह कि हुई कछु नहीं ॥ हे रामजी ! पृथ्वीविर्षे ऐसा अणु कोऊ नहीं, जिसविषे सृष्टि न होवे, अणु अणुविषे सृष्टि है, अरु सर्व ओरते वसती हैं, अरु परमार्थते कछु वना नहीं, केवल आत्मरूप हैं, सर्व सृष्टि शब्दमात्र हैं जैसे यह सृष्टि भासती है, तैसे वह भी है, जब यह शब्दमात्र है, तव वह मी शब्दमात्र है अरु जो यह सत् भासती है, तो वह भी सत् भासती हैं ॥ हे रामजी ! ऐसा कोऊ जलका कणका नहीं, जिसविषे सृष्टि नहीं, वह सवाविषे सृष्टि है, अरु यह आश्चर्य देख कि इसविना कछु नहीं अरु ऐसा कोऊ अग्निका अरु वायुका कणका नहीं, जिसविषे सृष्टि न होवै, सर्वविषे सृष्टि है अरु आकाशरूप है, कछु बना नहीं, ब्रह्मसत्ता अपने आपविषे सदा ज्योंकी त्यों स्थित है ॥ हे रामजी ! आकाशविषे ऐसा अणु कोऊ नहीं, जिसविषे सृष्टि न होवै, सबविषे सृष्टि है, परंतु कछु उपजी नहीं, ऐसा ब्रह्म