पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/५६०

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जगज्जालसमूहवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्त्तरार्द्ध ६. (१४४१ ) । अणु कौङ नहीं, जहां सृष्टि न होवै, सबविषे हैं, परंतु स्वरूपते कछु हुई नहीं, ब्रह्मसत्ता अपने आपविघे सदा स्थित है । हे रामजी ! ऐसा अणु कोऊ नहीं, जिसविषे ब्रह्मसत्ता नहीं, अरु ऐसा को चिअणु नहीं, जिसविषे सृष्टि नहीं, सो सृष्टि कैसे है, जैसे किसीने अग्नि कही, किसीने उष्णता कही, तिसविषे भेद कोऊ नहीं, तैसे कोऊ ब्रह्म कहै, कोऊ जगत् कहै, शब्द दो हैं, परंतु वस्तु एकहीहै, जगतही ब्रह्म है,अरु ब्रह्महीजगहै, भेद कछु नहीं, जैसे बहते जलका शब्द होता है। तिसविषे अर्थ सिद्ध कछु नहीं होता, तैसे जगत् झुझको कछु पदार्थ नहीं भासता है, काहेते जो दूसरी वस्तु कछु बनी नहीं, मैं तू अरु यह जगत् सुमेरुते आदि लेकर जो पर्वत हैं देवता किन्नर अरु दैत्य नाग इत्यादिक जो जगत् है, सो सब निर्वाणस्वरूप है, आत्मतत्त्वविषे कछु बना नहीं, यह बोलते चालते जो भासते हैं, सो स्वप्रकी नाईं जान, जैसे कोई पुरुष सोया है, अरु स्वप्नविषे नानाप्रकारके युद्ध होतेहैं, वाजिंत्र बाजते हैं, अरु अपर चेष्टा होती है; अरु जो उसके निकट जाग्रत् पुरुष बैठा है। तिसको कछु नहीं भासता, काहेते जो बना कछु नहीं, अरु उसको सब कछु भासता है, तैसे ज्ञानीके हृदयविषे जगत शून्य है, अरु अज्ञानीको भ्रमकारकै जगत् नानाप्रकारका भासता है, ताते हे रामजी ! स्वभवत इस जगत्को जानकारि प्रकृत आचार करु, अरु अंतरते शिलाकी नाई होहु, जो फुरै कछु नहीं, ब्रह्म अरु जगविखे रेचक भी भेद नहीं, ब्रह्म ही जगत् है; जगत् ब्रह्म है, जगत्का स्पष्ट अर्थ ब्रह्मते भिन्न नहीं ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणकरणे ब्रह्मजगदेकताप्रतिपादनं नाम शताधिकाष्टसप्ततितमः सर्गः ॥ १७८॥ शताधिकैकोनाशीतितमः सर्गः १७९. जगज्जालसमूहवर्णनम् । राम उवाच ।। हे भगवन् ! आकाशकोशविषे जो कुटी बनायकर समाधि लगाई, अरु सौ वर्षते उपरांत उतरी, तिसके अनंतर जो वृत्तांत