पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/५६१

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(१४४३) योगवासिष्ठ । हुआ सो कहौ ॥ वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी । जब समाधिते मैं उतरा, तब आकाशविषे मैं एक शब्द सुना, सो कैसा शब्द हुआ जो कोमल -हृदय अरु सुंदर तुतरीकी तारवत् अंगनाका शब्द हुआ, तब मैं विचार किया कि, यह शब्द कहते आया है, मैं तो बहुत ऊध्र्वको आया हौं, जहाँ सिद्धकी भी गम नहीं, सिद्धते भी तीन लाख योजन ऊँचा आया हौं, यह शब्द कहाँते आया ऐसे विचार मैं देखने लगा, दृशों दिशा आकाशही सर्व ओर देखे हैं, परंतु सृष्टिका कत्तों कोऊ दृष्ट न आवै, एक आकाशही भासै, अपर कछु न भासै, तब मैं विचार किया कि, जो सृष्टि आकाशविर्षे होती है, ताते मैं आकाशही हो जाऊँ अरु यह शब्दको पावौं कि, किसका शब्द है आकाशको भी त्यागिकार चिदाकाश होजाऊँ जहाँ भूताकाश भी कुटीवत् भासता है, तब इसका भी अंत भासैगा, अरु जानि लेवैगा, जो यह शब्द होता है, ऐसे विचार कार मैं निश्चय किया कि,यह शरीरही यहाँ रहे, नेत्र बँदे रहें तब पद्मासन बाँधिकार बाह्यकी इंद्रियोंको भी रोकी, अरु जो इंद्रियोंकी वृत्ति शब्द आदिकको ग्रहण करती थी, तिसको रोक लिया, अंतर बाहिरकी वृत्ति सब त्यागी,सर्व अहंवृत्तिको त्यागिकार मैं आकाशरूपहोगया, जैसे इस ब्रह्मांडविषे आकाशको अंत नहीं पाता; तैसे मैं इसको त्यागिकार चित्ताकाशरूप हो गया, मैं चित्ताकाशविषे आया, सो चित्ताकाश कैसा है, जो संकल्पही जिमका रूप है, तिमको भी मैं त्यागिकार बुद्धिआकाशविषे अया,चहुनि तिसको भी त्यागिकरिकै चिदाकाशविषे आया, तिसशब्दके देखनेके संकल्पकार चिदाकाशरूप हो गया, जैसे जलकी बूंद समुद्रमें मिला समुद्ररूप हो जाती है, तैसे मैं चिदाकाश हो गया, सो चिदाकाश निराकार निराधार है, अरु सबको धारि रहा है, परमानंदस्वरूप है,शांत है, अरु अनंत हैं,जिसविषे सर्व ब्रह्मांड प्रतिबिंबित होते हैं,आत्मा आदर्श हैं, तिसविषे मैं स्थित हुआ, तब मुझको अनंत सृष्टि अपने आपविषे भासने लगी, जैसे सूर्य की किरणोंविषेत्रसरेणु होते हैं, तैसे ब्रह्मविषे सृष्टि है,परंतु जीवकी अपनी अपनी सृष्टि हैं, इसकीसृष्टिको वह न जानै, उसकी सृष्टिको वह न जानै, जैसे मनुष्य सोए होवें, अरु अपनी अपनी स्वप्नसृ