पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/५६२

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जगज्जालसमुहवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तरार्द्ध ६. ( १४४३ ) विको ३. तिसविध आकाश अरु काल अपना आप देखे, उसकी सृष्टिको वह नहीं जानता, उसकी सृष्टिको वह नहीं जानता, परंतु ज्ञानी सर्व सृष्टि देखता है, तैसे मुझको सर्व सृष्टि चिदाकाशविषे भासै अरु जीवको अपनी अपनी सृष्टि भाले अपकी सृष्टि अपरको दृष्टि न आवै ॥ हे रामजी ! एक सृष्टि ऐसे भासै, जो आवरण कोऊ नहीं, आवरण कहिये जैसे पृथ्वीके चौफेर समुद्र होते हैं, सो वहाँ आवरण कोऊ न • था, अरु कहूं कहू एकही भूतका आवरण हैं, अरु कहूं ऐसी सृष्टि आवै, जिनको पाँचही तत्त्वका आवरण है, प्रथम पृथ्वीका आवरण, दूसरा जलका, तीसरा अग्निका,चतुर्थं वायुका, पंचम आकाशका आवरण है, कहूं ऐसी सृष्टि देख आवै, जिनको चार तत्त्वका आवरण है, कहूँ ऐसी देखी जिनको षटू आवरण, कहूं दश आवरण दृष्टि आवै, कहूं ऐसी सृष्टि दृष्टि आवै जिसको पोडश आवरण, अरु कहूं ऐसी हष्टि बैं . जिनको चौंतीस आवरण हैं, कहूं छत्तीस आवरण तत्वके संयुक्त सृष्टि देखीं ॥ हे रामजी ! इसप्रकार मैं अनंत सृष्टि देखता भया, चिदाकाश विषे, परंतु कैसी हैं, जो आकाशरूप हैं, सो आत्माते इतर वस्तु कछु नहीं, मनके ऊरणेते सुझको सृष्टि दृष्टि आवै, काहेते जो संकल्पमात्रही हैं, अपर कछु बना नहीं, जैसे कंधके ऊपर मूर्तियां लिखीं हो, तैसे आत्मरूपी कंधके ऊपर मूर्तियाँ दृष्टि आवें अपने अपने व्यवहारविचे मग्न रहे हैं ॥ हे रामजी । ऐसी अनंत सृष्टि देखी. एककी सृष्टिको दूसरा न जानै; सब अपनी सृष्टिको जानै, जैसे अनेक पुरुष एकही कालविषे शयन करें, अरु स्वप्नसृष्टि अपनी अपनी देखें दूसरी सृष्टिको वे नहीं जानते ॥ हे रामजी ! कछु ऐसी सृष्टि देखी, जहां सूर्यको प्रकाश नहीं, अरु न चंद्रमाका प्रकाश है, न अग्निका प्रकाश है, अरु चेष्टा उनकी सब बड़ी होती हैं । कहूं ऐसी देखी जहां सूर्य चंद्रमा हैं, न कहूँ ऐसी देखी जो उनको कालका ज्ञान भी नहीं कि, कौन काल है, न वहां कोऊ दिन हैं, न रात्रिही है, सदा एकसमान रहते हैं, कई महाशून्यरूप तमही दृष्ट आवै, कहूं ऐसे हुए आवै जो देवताही रहते हैं, कुहूं मनुष्यही रहते हैं कहूँ तिर्यकही रहते हैं, कहें दैत्यही दृष्ट आवै, कहूँ जलही दृष्ट अवै अपर तत्त्व को न दुष्ट आवै, अरु कहूं ऐसी सृष्टि दृष्ट आवै, जहां शास्त्रका विचारही