पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/५६३

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(१४४४) योगवासिष्ठ । नहीं, कहूँ शास्त्र पुराण विपर्ययरूप हैं, कहूँ समान हैं, कहूं प्रलय होती दृष्ट आवै, कहूँ उत्पत्ति होती दृष्ट आवै ॥ हे रामजी! इत्यादिक अनंत सृष्टि मैंने देखी, परंतु जब स्वरूपकी ओर देखौं, तब केवल ब्रह्मरूपही भासै अपर कछु बना दृष्ट न आवै, अरु जब संकल्प कारकै देखिये तब अनंत सृष्टि दृष्ट आवै, कहूँ ऐसी सृष्टि दृष्ट आवै, जहाँ बालकको वृद्ध यौवन अवस्थाकी मर्यादाही नहीं, जैसे जन्मै तैसेही रहे, कहूँ ऐसी सृष्टि है, जो चंद्रमा सूर्यको प्रकाशनहीं अरु अग्निके प्रकाशसाथ उनकी चेष्टा होती है, कहूँ ऐसे देखे, जो ऊर्ध्वको चले जावें, कहें नीचे चले जावें, कहूँ ऐसे देखे जो शास्त्रकी मर्यादासाथ चेष्टा करें, कहूँ कृमिही वसते हैं, अपर को नहीं ॥ हे रामजी । चेतनरूपी वनविये मैं अनंत सृष्टिरूपी वृक्ष देखे, परंतु दूसरा कछु बना दृष्ट न आया, सब चैतनका आभासही दृष्ट आया, जैसे सूर्यको किरणोंविर्षे जलाभास होता है, अरु बना कछु नहीं, तैसे सृष्टि बनी कछु नहीं, अरु इच्च आवै, जैसे आकाशविषे नीलता भासती है, अरु दूसरा चंद्रमा भासता है, तैसे अनहोती सृष्टि भासै, जैसे मरुस्थलविषे जल भासता है, अरु गंधर्वनगरकी सृष्टि भासती है, तैसे संपूर्ण सृष्टि भासती है॥ हेरामजी! ब्रह्मरूपी आकाश हैं, तिसविपे चित्तरूपी गंधर्वने सृष्टि रची है, स्वरूपते इतर कुछ उपजा नहीं, सब अकारण है, जो निमित्तकारण समवायकारणविना सृष्टि भसै सो भ्रममात्र जानिये, जैसे स्वप्नसृष्टि कारणविना होती है, अरु अथकार हो भासती है तो भी अजातजात है, अर्थ यह जो उपजेविना उपजी भासती है, तैसे संपूर्ण सृष्टि अभासमात्र है । हे रामजी ! आभासविड़े भी अधिष्ठानसत्ता होती है जिसके आश्रय आभास फुरता है, सो शांत चिदानंद ब्रह्म सबका अधिष्ठान हैं, अरु सर्व आत्मताकारकै स्थित है, ब्रह्मसत्ताते इतर कछु नहीं चैत्यताकारके नानात्वं भासता है, परंतु नानात्व हुआ कछु नहीं आत्माही सर्वदा अपने पविषे स्थित हैं, जैसे क्षीरसमुद्रविषे वायुकारकै नानाप्रकारके तरंग उपजते भासते हैं, तो भी क्षीरते इतर कछु नहीं, ऐसा क्षीरसमुद्रका तरंग कोङ नहीं, जिसविषे घृत न होवे सब विषे धृत व्याप रहा है, तैसे जो कछु पदार्थ हैं, तिन सबविषे ब्रह्मसत्ता अनुस्यूत