पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/५६४

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जगज्जालवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तरार्द्ध ६. ( १४४५) है, अरु जैसे क्षीरके मथनकियेते घृत निकसताहै,तैसे विचार कियेते जगत् ब्रह्मस्वरूप भासता है, इतर कछु नहीं. काहेते जो कारणद्वारा कछु नहीं उपजा, परमार्थते केवल आत्मसत्ता अपने आपविषे स्थित है, औरणेरूपी भ्रमकारकै कुछ हुआ दृष्टि आता है, जब रणरूपीभ्रम निवृत्त हुआ, तब ब्रह्मही भासता है, ताते अविद्यारूप ऊरणेको त्यागिकार अपने निर्विंकल्प स्वरूपविषे स्थित हो, तब जगद्धम निवृत्त हो जावैगा ॥ इति श्रीयोगवासिष्टे निर्वाणप्रकरणे जगज्जालसमूहवर्णनं नाम शताधिकैकोनाशीतितमः सर्गः ॥ १७९ ॥ L ,24 शताधिकाशीतितमः सर्गः १८० जगज्जालवर्णनम् । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! जब इसप्रकार मैं सृष्टि देखी, तब बहुरि विचार आनि हुआ कि वह शब्द करनेहारा कौन था, तिसको देखौं, तब मैं देखने लगा, देखते देखते तीतरीकी नाईं शब्द सुना, परंतु उसको न देखा, तब फेरि देखा, देखते देखते शब्दका अर्थ भासने लगा, बहुरि देखा तब अंगना दृष्टि आई सो कैसी है, स्वर्णवत् जिसका शरीर है, बहुत सुंदर वस्त्र पहिरे हुए है, अरु सर्व अंग भूषणोंकरि पूर्ण हैं, लक्ष्मीकी नाईं तिसको उपमा दीजिये, अरु भवानीकी उपमा दीजिये, ऐसी सुन्दर हैं, जब मैं उसको देखी, तब वह मेरे निकट आय प्राप्त भई अरु कहने लगी ॥ हे मुनीश्वर ! अपर संसार मैं देखा हैं, परंतु समानधर्मा मुझको दृष्ट आया है, अरु तुम उत्तमधम भासते हौ, संसारसमुद्रके पार हुए दृष्ट आते हौ,संसारसमुद्रपरके तुम वृक्ष हौ, जो कोङ तुम्हारी ओर आता है, तिसके आश्रयभूत हौ, अरु निकासि भी लेते हौ. अपर जो जीव हैं सो संसारसमुद्रविषे बहे जाते हैं, अरु तुम पारको प्राप्त हुए हौ, ताते तुमको नमस्कार है । हे रामजी!जब इसप्रकार अंगनाने कहा, तब मैं आश्चर्यको प्राप्त हुआ कि, इसने मेरे ताई कदाचित् देखा भी नहीं, अरु