पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/५६६

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जगज्जालवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तरार्द्ध ६. (१४४७) सार कछु नहीं निकसता, तैसे स्थानविषे सार कछु नदेखा ॥ हे रामजी क्रिया काल सब विश्व ब्रह्मस्वरूप हैं, जैसे समुद्रविषे तरंग बुद्धुदे सब जलरूप हैं, तैसे जगत् सब ब्रह्मस्वरूप है, इतर कछु नहीं; जैसे क्षीरसमुद्रविषे तरंग आवर्त क्षीरते भिन्न कछु-नहीं होते, तैसे तु अरु मैं. जगत् सब ब्रह्मही है, जब बोधकी ओर मैं देखौं, तब सर्वं ब्रह्मही दृष्ट आवै, जब संकल्पकी ओर देखौं, तब नानाप्रकारका जगत् दृष्ट आवै, इसप्रकार मैं अनंत सृष्टि देखत भया, कहूँ कैसे सृष्टि देखी जो अधही है, कहूँ गुणकी सृष्टि देखी, अरु कहूं ऐसी सृष्टि देखी जो धर्म अधर्म को जानतेही नहीं ॥ हे रामजी ! एकसौ पचाश सृष्टि त्रेतायुगकी देख अरु जो भिन्न भिन्न सृष्टि हैं, अरु भिन्न भिन्न जगत् तिनविषे ब्रह्माके पुत्र वसिष्ठ भिन्न भिन्न देखे, जिनको मेरे समान ज्ञान हैं, अरु मेरेही समान मुत्ति है, बहुरि मुझते उत्तम भी हैं, अरु तू सुन, जो तिन एकसौ पचाश सृष्टिविषे तितने वसिष्ठ देखे, तिन सबके आगे उपदेश लेनेके निमित्त रामजी बैठे हैं, अरु त्रेतायुगविषे अनेकयुग, अरु अनेक द्वापर, अनेक त्रेता, अनेक सत्ययुग देखे, सो सब चेतन आकाशके आश्रय देखे । हे रामजी ! हुए विना सब दृष्ट आवै, जैसे मरुस्थल विषे जल भासंता है, जैसे आकाशविषे अनहोती नीलता भासती है, जैसे जेवरीविषे अनहोता सर्प भासता है, तैसे ब्रह्म कारकै अनहोता जगत् भासता है । हे रामजी ! मनके फुरणेकार जगत् भासता है, अरु फुरणेके मिटेते सब ब्रह्मही भासता है ॥ हे रामजी ! अनन्त सृष्टि मैंने देखीं जैसे सूर्यको किरणोंविषे अनंत त्रसरेणु दृष्ट आवै, तैसे सृष्टि अनंत देखी, एक चेतनते अनेक चेतन दृष्ट आवै, जैसे वृक्षते फल प्रगट होते हैं, तैसे संकल्परूपी वृक्षते सृष्टिरूपी फल दृष्ट आवै, जैसे एक गुल्लरके फूलविषे अनंत मच्छर होते हैं, तैसे एक आत्मसत्ताके आश्रय अनंत सृष्टि संकल्पके ऊरणेकार मुझको दृष्ट आईं, कहूं महाप्रलयके क्षोभ होते हैं, अरु समुद्र उछलते हैं, तिनके तरंग देवलोकको गिरातेहैं, कहूँ श्यामरूप चंद्रमा उष्ण दृष्ट आवै, कहूं सूर्य शीतल दृष्ट आवै,कहूं ऐसी सृष्टि दृष्टि आवै जो दिनको अंध होजावे, अरु रात्रिको उलूकादिककी