पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/५६९

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१ ३४५०) योगवासिष्ठ । कहा जो पाछे ब्रह्मसत्ता शेष रहती है, जब तुझने माना जो सबका कारण ब्रह्मशेष रहता है, सो ब्रह्मसत्ता शुद्ध स्वरूप हैं, आकाशते भी सूक्ष्म है, जो आकाशका एक अणु होवे,अरु तिसका सहस्र भाग कारये जसे वह अणुका भाग सूक्ष्म होता है, तिसते भी ब्रह्मसत्ता अति सूक्ष्म है । हे रामजी । ऐसे सूक्ष्म ब्रह्मते जगत्की उत्पत्ति कैसे कहौं,अरु जोउत्पत्तीही नहीं भई; तौ तिसकी प्रलय कैसे होवे, अरु यह जगत् जो दृष्ट आता हैं, सो ब्रह्मका हृदय है, अपनी जो स्वभाव सत्ता है, तिसका नाम हृदय है, सो यह जगत् ब्रह्मका व है, जैसे स्वप्नविषे अपनी सवितही देशकाल पर्वत आदिकरूप होती है, तैसे यह जगत् संवितरूप है। अरु अपने स्वरूपके अज्ञान करिकै हुएकी नाई दुःखदायक भासता है, जैसे अपने पडछायेविषे अज्ञानकारिकै भूत कल्पता है,अरु भयको प्राप्त होता है, जब विचारकर देखता है, तब भय निवृत्त हो जाता है, तैसे यह जगत् कछु उपजा नहीं। हे रामजी । चेतनसंविही जगत् आकार होकार भासती है, अपर वस्तु कछु नहीं, जो सब वही हुआ तौ आदि सगैका होना, अरु प्रलय सब उसीके अंग हैं, इतर कछु नहीं, अस्ति नास्ति उदय अस्तते आदि जो शब्द हैं, सो सब आकाशरूप हैं, अरु सबका अधिष्ठान आत्मसत्ता है, अरु सर्व शब्द ब्रह्महीविषे होते हैं, अरु ब्रह्म सर्व शब्दते रहित भी हैं, जो सर्व शब्दृते रहित हुआ तौ जगत्की उत्पत्ति प्रलय क्योंकार कही जावै, आत्मा अच्छेद्य अरु अदाह्य अरु अछेद्य है, अदृश्य हैं, इंद्रियोंका विषय नहीं अशब्द पद केवल आत्मा है, अरु परमदेव है, अरु जगतभी अविनाशी है, काहेते जो उपजाही नहीं ॥ हे रामजी ! जगत् भी आत्माते इतर नहीं, आत्मरूप है, जो आत्मरूप है, तौ विकार कहाँ होवे, सर्व शब्द अरु अर्थका अधिष्ठान आत्मसत्ता है, ताते जगत् ब्रह्मस्वरूप है, जैसे अंगवाला सर्व अंग अपने जानता है,तैसे सब जगत् ब्रह्मके अंग हैं,अरु सबको जानता है,वास्तव ते सुस्वच्छ आकाशवत् है, अदेशकाल वस्तु सुख दुःख जन्म मरण साकार निराकार केवल अकेवल नाशी अविनाशी इत्यादिक सर्वे शब्द अरु अर्थ सब ब्रह्महीके नाम हैं, जैसे अवयव अवयवी पुरुषके हैं, जो