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योगवासिष्ठ।

संतकी संगति चंद्रमाकी चांदनीवत् शीतल है, अमृतकी नाईं आनंदको देनेहारी है, ऐसा कौन है, जो संतके संगकरि आनंदको प्राप्त न होवै, सब आनंदको प्राप्त होते हैं, यह अर्थ है॥ हे मुनीश्वर! संतका संग चंद्रमाके अमृतते भी अधिक है. काहेते कि, वह शीतल गौण है, अंतरकी तप्तता नहीं मिटावती, अरु संतका संग अंतरकी तप्तता मिटाता है, वह अमृत क्षीरसमुद्रके मथनते क्षोभसाथ निकसा है, अरु संतका संग सुखसे प्राप्त होताहै, आत्मानंदको प्राप्त करता है, ताते यह परम उत्तम है, मैं तो इसते परे अपर उत्तम नहीं मानता, संतका संग सबते उत्तम है, अरु संत भी वही है, जिनकी सर्व इच्छा आपातरमणीय निवृत्त भई है, अर्थ यह कि विचारविना दृश्य पदार्थ सुंदर भासता है, अरु नाशवंत है, जिनको ऐसे पदार्थ सब तुच्छ भासते हैं, अरु सदा आत्मानंदकार तृप्त है,अरु अद्वैत निष्ठाहै, द्वैतकलनाका जिनको अभाव भयाहै, सदा आत्मानंदविष स्थितहैं, ऐसे पुरुष संत कहाते हैं तिन सन्तनकी संगति ऐसी है, जैसे चिंतामणि होताहै, जिसके पायेते सर्व दुःख नाश होते हैं॥ हे मुनीश्वर! त्रिलोकीरूपी कमलके भँवरे एक तुमही दृष्ट आते हो, सब ज्ञानवानते उत्तम दृष्ट आये हौ, तुम्हारे वचन स्निग्ध अरु कोमल अरु आत्मरसकरि पूर्ण अरु हृदयगम्य अरु उचित हैं, अरु हृदय महागंभीर अरु उदार धैर्यवान् सदा आत्मानंदकरि तृप्त है, ताते तुम सबते उत्तम मुझको दृष्टि आये हौ, तुम्हारे दर्शनकरि मेरे दुःख नष्ट भये हैं, आज मेरा जन्म सफल भया है, तुम सारखे संतका संग आत्मपदको प्राप्त करता है, अरु दुःखभयको नष्ट करिकै निर्भयताको प्राप्त करता है॥ इति श्रीयोग॰ निर्वाणप्र॰ संतमाहात्म्यवर्णनं नाम सप्तदशः सर्गः ॥१७॥



अष्टादशः सर्गः १८.

भुशुण्डोपाख्याने जीवितवृत्तान्तवर्णनम्।

भुशुण्ड उवाच॥ हे मुनीश्वर! तुमने पूछा था कि, सूर्य वायु जलका क्षोभ होता है, तब तू खेदवान् किसकरि नहीं होता, तिसका