पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/५७०

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बोधजगदेकताप्रतिपादनं–निर्वाणप्रकरण, उत्तराई ६. ( १४५१) पसारै तौ भी अपने स्वरूप हैं, जो संकोचै तौ भी अपने अवयव हैं, तैसे उत्पत्ति प्रलय सब ब्रह्महीके अवयवहैं, इतर कछु नहीं, परंतु इतरकी नाई जगत् हुआ भासंता है, जैसे सूर्य किरणोंविषे जल कछु हुआ नहीं परंतु हुएकी नाईं दृष्ट आता है, किरणेंही जल होकार भासती हैं, तैसे आत्मा जगत आकार होकार भासता है, सो आत्मस्वरूपही है ॥ हे रामजी शुद्ध चिन्मात्र ब्रह्मरूपी एक वृक्ष है, तिसविषे सो संवित् ऊरणा हुआ है, सो दृढमूल हैं, अरु चित्त शरीररूपी तिसके स्तंभ हैं, अरु लोकपाल तिसके दास हैं, अरु शाखा तिसकी जगत्, अरु फल तिसका प्रकाश हैं, जिस कार जगत् प्रकाशता है, अरु अंधकार तिस वृक्षविषे श्यामता है, अरु वृक्षविषे जो पोल होतीहै, सो आकाश है, अरु फूलके गुच्छे हैं, सो प्रलय हैं, अरु गुच्छेके हिलावनेहारे जो सँवरे होते हैं, सो विष्णु रुद्रादिक हैं, अरु जडता तिसकी त्वचा है, इसप्रकार सम सत्य आत्मब्रह्म है, ब्रह्मत्वभावते भी नहीं, कछु नहीं, सर्वदा अपने स्वभावविषे स्थित हैं ॥ हे रामजी ! जगत्का भाव अभाव उत्पत्ति प्रलयादिक सर्व स्वभाव अनुभवरूप ब्रह्म स्थित है, अरू विकार तिसविर्षे कोऊ नहीं केवल शुद्ध निरंजन आत्मआकाश निर्मल है, जैसे चंद्रमाके मंड़लविषे विषकी वल्ली नहीं होती, तैसे आत्माविषे विकार कोऊ नहीं, निर्मल आकाशरूप है, अरु आदि अंत मध्यकी कलनाते रहित हैं, तौ लोकपालभ्रम कैसे होवे, अरु जेते कछ विकार भासते हैं, सो आत्माके अज्ञानकार भासते हैं, जब तू एकाग्रचित्त विचार कारकै देखेगा, तब जद्धम शांत हो जावैगा, यह जगद्धम फुरणेकार भासा है, जब ऊरणा उलटिकार आत्माकी ओर आवैगा, तब यह जगद्गम मिटि जावैगा, जैसे पवनकारि दीपक जागता है, अरु पवनहीकार लीन हो जाता है, तैसे चित्तके ऊरणेकरि जगत् भासता है, अरु चित्तका फुरणा जब अंतर्मुख होता है, तब जगद्धम मिटि जाता है । हे रामजी। जब ज्ञानकरके देखेगा, तब अज्ञानरूप ऊरणेका त्रिकाल अभाव हो जावैगा, बंध मुक्ति आत्माविषे काऊ न भासेगी, इसविषे संशय कछु नहीं, यह जगजाल जो भासता है, सो आत्माविषे कछु उपजा नहीं