पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/५७१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

( ३४५२) योगवासिष्ठ । अज्ञान कारकै भासता है, जब विचार करके देखेगा; तब अष्ट सिद्धिका ऐश्वर्य तृणवत् भासैगा ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणेबोधजगदेकताप्रतिपादनं नाम शताधिकैकाशीतितमः सर्गः ॥ १८१ ॥ शताधिकहरशीतितमः सर्गः १८२. जगदेकताप्रतिपादनम् । | राम उवाच ॥ हे भगवन् ! यह जो जगज्जाल तुमने देखा चिनृप होकार, सो एकस्थानविषे बैठिकार देखा, अथवा सृष्टिविषे जायकार देखा सो कहौ । ॥ वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! मैं अनंत आत्मा हौं, सर्वशक्तिसंपन्न सर्वव्यापी चिदाकाश हौं, मेरेविषे आना जाना कैसे होवे, न एक स्थानविषे बैठिकार देखा, अरु न सृष्टिविषे जायकार देखा है। हे रामजी । मैं चिदाकाश हौं, चिदाकाशविषे देखा है ॥ हे रामजी । जैसे तू अपने अंगको शिखाते लेकर नखपर्यंत देखता है, तैसे मैं ज्ञाननेकर अपने आपहीविषे जगत्को देखत भया हौं, सो कैसे जगत्को देखा हैं, जो निराकार निरवयव आकाशरूप निर्मल देखे हैं, अरु सावयव जो इष्ट आये हैं सो ऊरणेकरि दृष्ट आये हैं, वास्तव कछु नहीं, केवल आकाशरूप हैं, जैसे स्वप्नविषे दृष्टिका अनुभव होवै, परंतु संवित्रूप है। अपर कछु नहीं, जैसे वृक्षके पत्र दास फूल फल सब अपने अंग होते हैं। तैसे ज्ञाननेत्रकारि जगत्को मैं देखत भया हौं । हेरामजी । जैसे समुद्र सब तरंग फेन बुद्बुदे अरु जल तरंगको अपने आपहीविषे देखता है, तैसे मैं अपने आपविषे जगत्को देखता भया हौं, अरु अब भी मैं इस देहविषं स्थित हुआ पर्वतविषे सृष्टियां ज्ञान कारकै देखता हौं, जैसे कुटीके अंतर बाहर आकाश एकरूप है, तैसे मुझको आगे भी अरु अब भी जगत् आकाशरूप अपने आपविषे भासते हैं, जैसे जल अपने रसको जानता हैं, जैसे बरफ अपनी शीतलताको जानता हैं, जैसे पवन अपने स्पंदताको जानता है, तैसे मैं ज्ञानकार सृष्टि अपनेविषे देखत