पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/५७२

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जगदेकताप्रतिपादनम्-निर्वाणप्रकरण, उत्तरार्द्ध ६. ( १४५३ ) भया हौं, जिस ज्ञानवान् पुरुषको शुद्ध बुद्धविषे एकता भई है, सो ऐसे देखता है, जो सर्वात्मा आकाशवत अपना आप है, जिसको आत्मस्थिति भई है, सो वेदनको भी अवेदन देखता हैं, जो कदाचित् उपजा नहीं, जैसे देवता अपने अपने स्थानविषे बैठे हुए दिव्य नेत्रकारि कोटि योजनपर्यंत अपने विद्यमान देखते हैं, तैसे जगतोंको मैं सर्वात्म होकार देखत भया हौं, जैसे पृथ्वीविषे निधि होती है, अरु औषधि रससहित पदार्थ होते हैं, सो पृथ्वी अपनेविषेही देखती है, तैसे मैं जगतको अपनेविषेही देखत भया हौं । राम उवाच ॥ हे भगवन् ! वह जो कमलनयनी काँता थी, आय छैदके पाठ करनेहारी सो बहुरि क्या करत भई ॥ - वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! आकाशवपुको धारिकै मेरे निकट आनि स्थित भई, जैसे भवानी आकाशवर्षे आनि स्थित होवै, तैसे आनिस्थित भई, जैसे मैं आकाश व था, तैसे उसको मैं आकाश वधु देखत भया आकाशविषे प्रथम इस कारणते मैं देखत भया कि जो मेरा आधि‘भौतिक शरीरथा,जब चित्तपद होकार मैं स्थित भया,तब कवाको देखा, मैं आकाशरूप हौं, अरु वह सुन्दरी भी आकाशरूप है, अरु जगज्जाल जो देखा सो भी आकाशरूप है ॥ श्रीराम उवाच ॥ हे भगवन् ! तुम भी आकाशरूप थे, अरु वह भी आकाशरूप थी,अरु वचनविलास तब होता है, जब शरीर होता है, अरु तिसविषै बोलनेका स्थान कंठ तालु नासिका दूत ओठ आदिक होते हैं, अरु प्राण अन्तर प्रेरणेहारे होते हैं, तब अक्षरका उच्चार होता है, तुम तो दोनों निराकार थे, तुम्हारा देखना बोलना किसप्रकार भयो, अरु बोलना अवलोकनरूप मनस्कारकर होता है, रूप कहिये दृश्य, अवलोकन कहिये इंद्रियां, मनस्कार कहिये मनका फुरणा, इन तीनों विना तुम्हारा बोलना कैसे हुआ । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! जैसे स्वप्नविषे रूप अवलोकन मनस्कार अरु शब्द पाठ परस्पर वचन होते हैं, सो आकाशरूप होते हैं, तैसे हमारा देखना बोलना आपसविषे परस्पर संवाद हुआ है, जैसे स्वप्नविषे देखते हैं, रूप अवलोकन मनस्कार आकाशरूप होते हैं, अरु प्रत्यक्ष भासते हैं, तैसे हमारा देखना अरु बोलना हुआ, यह प्रश्न तुम्हारा नहीं बनता