पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/५७३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

( १४५४ ) योगवासिष्ठ । कि, देखना बोलना कैसे हुआ अरु जैसे आकाशविषे मैंने सृष्टि देखी हैं, तैसे यह सृष्टि भी है, जैसे उनके शरीर थे तैसे उनकेअरु हमारा शरीर जैसे यह जगत् है, तैसे वह जगत् है ॥ हे रामजी ! यह आश्चर्य है, जो सत वस्तु नहीं भासती है, अरु जो असत वस्तु हैं सो भासती है, जैसे स्वप्नविध पृथ्वी पर्वत समुई अरु जगत् व्यवहार में नहीं सो प्रत्यक्ष भासता है, अरु सत् वस्तु अनुभवरूप नहीं भासती, तैसे हम तुम जगत् सब आकाशरूप हैं, जैसे स्वप्नविषे युद्ध होते भासते हैं, अरु शब्द होते हैं, अरु आना जाना भासता है सो सब आकाशरूप हैं, अरु हुआ कछु नहीं; तैसे यह जगत् भी है । हे रामजी | स्वप्नसृष्टि मिथ्या है, बनी कछु नहीं, अरु कछु हैं सो अनुभवरूप हैं, इतर कछु नहीं अरु तू कहै, स्वप्न क्या है, अरु कैसे होते हैं सो सुनआदि परमात्मतत्त्चविषे स्वर वचन हुआ है, सो विराट आत्मा हैं, बहुरि तिसते यह जीव हुए हैं। सो आकाशरूप हैं, काहेते जो विराट आकाशरूप है, यह सब आकाशरूप है, अरु स्वप्न दृष्टांत भी मैं तेरे बोधके निमित्त कहा है, काहेते कि, स्वप्न भी कछ हुआ नहीं, केवल आत्ममात्र हैं,ब्रह्मही अपने आपविषे स्थित हैं । हे रामजी ! वह कांता मैंने देखा, तब उसते पूछत भया, काहेते जो संकल्प मेरा अरु उसका एक हुआ जैसे स्वप्नविषे स्वग्न जनका होता हैं, तैसे हमारा हुआ ॥ हे रामजी! जैसे स्वप्नसृष्टि आकाशरूप होती है, तैसे हम तुम सब जगत् आकाशरूप हैं, कछु हुआ नहीं, स्वप्नजगत् अरु जाग्रतजगत् एकरूप है, परंतु जाग्रत दीर्घ कालका स्वप्न है,ताते इसविधे दृढ व्यवहार उत्पन्न प्रलय होते भासते हैं। हे रामजी ! स्वमविषे भोग होते हैं, सो भ्रांतिमात्र हैं, निर्मल आकाशरूप आत्माते इतर कछु बना नहीं, तैसे यह दृश्य अरु द्रष्टा स्वप्रकी नाईं अनहोते भासते हैं,जो हम तुम आदिक दृश्यको मनरूपी द्रष्टा सत्य मानता है, सो दोनों अज्ञानकारि भ्रममात्र उदय हुए हैं, अरु जो शुद्ध द्रष्टा है, सो दृश्यते रहित है, अरु जैसे द्रष्टा आकाशरूप है, तैसे दृश्य भी आकाशरूप हैं, जैसे स्वप्नसृष्टि अनुभवते इतर कछु नहीं,तैसे यह जाश भी अनुभवरूप है॥हे रामजी चिदाकाश जो अनंत आत्मा है, सो इस जगतका कारण कैसे होवे,