पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/५७८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

विद्याधरीविशोकवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तरार्द्ध ६. ( १४५९ ) आत्मतत्त्वके आश्रय अनंत सृष्टि भासती हैं, अरु सृष्टिको सत् जानकार जीव विचरते हैं, सो मोक्षमार्गते शून्य हैं, जैसे यह पुरुष शयन करता है, तिसको स्वप्नविषे परिणाम हुआ, तिसविषे जो जीव हुए तिनको बहुरि स्वप्न हुआ, तब अपनी अपनी सृष्टि उनको भासती है, अरु बहुरि तिनको अपनी सृष्टि भासि आई तौ अनंत सृष्टि अनुभवते अश्रय होती हैं, तैसे,एक आत्माके आश्रय असंख्य सृष्टि फुरतीहैं, सो सृष्टि कैसी हैं, कई समान हैं, कई अधसमान हैं, कई विलक्षण भासती हैं, अपनी अपनी सृष्टिको जीव जानतेहैं, जैसे एक मंदिरविषे दशपुरुष सोए हैं, अरु तिनको अपना अपना स्वप्न आया, तब उसकी सृष्टिको वह नहीं जानता, उसकी सृष्टिको वह न जानता, तैसे यह सृष्टिभी अप रको ज्ञान है, काहेते कि, संकल्प अपना अपना है, जैसे पत्थरको पत्थर नहीं जानता, अरु जो अंतवाहके शरीर योगीश्वर हैं, तिनको सृष्टिका ज्ञान होता है ॥ हेरामजी । वास्तवते सृष्टि भी निराकार आकाशरूपहै, जैसे सूर्यको किरणोंविषे जलाभास होता है, तैसे आत्माविषे सृष्टि है, जैसी जेवरीविषे सर्प भासता है तैसे आत्माविषे सृष्टि भासती है ।। हे रामजी । वास्तवते कुछ हुआ नहीं, सर्वदा काल सर्वप्रकार आत्माही अपने आपविषे स्थित हैं, जिनको आत्माका प्रमाद हुआ, तिनकोजगत् भासता है, वास्तवते जगत् किसी कारणकारे नहीं उपजा, आभासरूप है, सम्यक् ज्ञानके हुएते ब्रह्म अद्वैत भासताई, अरु असम्यक्ज्ञानते द्वैत रूप जगत् हो भासता है, जैसे जेवरीके सम्यक् ज्ञानते जेवरीहीभासती अरु असम्यक ज्ञानकार सर्पभासता है, तैसे आत्माके असम्यकृज्ञानकार जगज्ञान होता है । हे रामजी । मैं उस देवीसों प्रश्न कियाकि हे देवी !, तू कहाँते आई है, अरु तेरा स्थान कौन है, अरु तू कौन है, अरु इहां किसनिमित्त आई हैं, तब देवी बोली । देव्युवाच ॥ हेमुनीश्वर ब्रह्मरूपी जो महाआकाश हैं, तिसका जो अणुहै, बहुवारि तिस अणुकाभीजीअणु हैं; तिसका जो छिद्र है, तिस छिद्रविषेभी जो छिद्र है, तिसविषे जो तुम रहते हौ, तुम्हारा यह जगत् भी उसीविषे है, तुम्हारी सृष्टिका जो ब्रह्मा है, तिसकी संवेदनरूपी कन्या है;तिसने यह जगत् रचाई, तिस तुम्हारे