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भुशुण्डोपाख्याने जीवितवृत्तान्तवर्णन–निर्वाणप्रकरण ६.

उत्तर श्रवण करहु, जब जगत‍‍्को क्षोभ होता है, तब मेरा यह कल्पवृक्ष स्थिर रहता है। क्षोभको नहीं प्राप्त होता॥ हे मुनीश्वर! यह मेरा वृक्ष सब लोकको अगम है, भूत नष्ट होते हैं, तब भी मैं इसकरि सुखीरहता हौं, जब हिरण्यकशिपु द्वीपसहित पृथ्वीको समेटिकरि पाताल लेगया था, तब भी मेरा वृक्ष कंपायमान नहीं भया, जब देवताओंका अरु दैत्योंका युद्ध हुआ, तब अपर पर्वत सब चलायमान भये, अरु मेरा वृक्ष स्थिर रहा, अरु जब क्षीरसमुद्रके मथनेनिमित्त विष्णुजी सुमेरुको भुजासे, उखाड़ने लगे तब भी मेरा वृक्ष कंपायमान नहीं भया, बहरि मंदराचलको ले गये, तब क्षीरसमुद्रको मथने लगे, प्रलयकालका पवन अरु मेघका क्षोम हुआ है, तब भी मेरा वृक्ष कंपायमान नहीं भया, बहुरि एक दैत्य सुमेरुको आय पटकने लगा, उसने कछुक उखाडा परंतु मेरा वृक्ष कंपायमान नहीं भया॥ हे मुनीश्वर। इत्यादिक बडे बडे उपद्रव आनि हुए हैं, प्रलयकालके मेघ अरु पवन अरु सूर्य तपैं हैं, तब भी मेरा वृक्ष स्थिर रहा है॥ वसिष्ठ उवाच॥ हे साधो! जब प्रलयकालके वायु अरु मेघ आय क्षोभते हैं, तब तू विगतज्वर कैसे रहता है॥ भुशुण्ड उवाच॥ हे साधो। जब प्रलयकालके वायु मेघादिक क्षोभ करते हैं, तब मैं कृतघ्नकी नाईं अपने आलणेको त्यागि जाता हौं, सब क्षोभते रहित आकाशविषे जाय स्थिर होता हौं, अरु सब अंगको सकुचाय लेता हौं, जैसे वासनाको रोकेते मन सकुचि जाता है, तैसे मैं अंगको सकुचाय लेता हौं॥ हे मुनीश्वर! जब प्रलयकालका सूर्य तपता था, तब मैं जलकी धारणाकरि जलरूप हो जाता था, अरु जब वायु चलता था, तब पर्वतकी धारणा बांधिकरि स्थित हो जाता था, जब बहुत तत्त्वोंका क्षोभ होता था, तब सबको त्यागिकरि ब्रह्मांड खपरके पार जो निर्मल परमपद है, तहां मैं जाय स्थित होता हौं, सुषुप्तिवत् अचल गम्भीर हो जाता हौं, जब ब्रह्मा उपजि करि बहुरि सृष्टिको रचता है, तब मैं सुमेरुके वृक्ष ऊपर इसी आलणेविषे स्थित होताहौं॥ वसिष्ठ उवाच॥ हे पक्षीश्वर! जैसे तुम अखंड स्थित होते हौ तैसे अपर योगीश्वर स्थित क्यों नहीं होते?॥ भुशुण्ड उवाच॥ हे मुनीश्वर! यह परमात्मा