पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/५८१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

( १४६२ ) योगासिष्ठ । आचार करती हौं,सब गुणों करके संपन्न हैं, अरु सवैको धारि रहीहौं, अरु सर्वकी प्रतिपालक हौं, अरु ज्ञेयकी सदा सुझको इच्छा रहती है ॥ है मुनीश्वर ! मैं पतिव्रता हौं, जो पुरुष प्रतिव्रता स्त्रीकेसाथ स्पर्श करता है, सो बहुत सुख पाता हैं, तीनों तापते रहित होता है, अरु सब गुण जिसविषे पाते हैं, सदा भतविष प्रीति करती है, अंक भर्ताकी प्रीति उसीविषे रहै, ऐसी मैं हौं, तिसको त्यागिकरि ब्राह्मण एकांत जाय बैठा हैं, अरु सर्वकाल वेदका अध्ययन अरु विचार करता रहता है, अरु सर्व कामनाका जिसने त्याग किया है, कोऊ इच्छा तिसको नहीं रही, अरु मैं उसके वियोगकार जलती हौं । हे भगवन् ! वह स्त्री भी भली है, जिसका भर्ती विवाहकरि मार गया है, अरु जिसका भर्ता नहीं प्राप्त भया सो भी भली है, जो सदा कुँवारी है, अरु जो भतके संयोगते प्रथमही मरिजाती है, सो भी श्रेष्ठ है, अरु जिसको भर्ती प्राप्त भया है, परंतु तिसको स्पर्श नहीं करता, तब उसको बडा दुःख होता है । है मुनीश्वर। जो पुरुष परमात्माकी भावनाके संस्कारते रहित उत्पन्नहुआ है, सो निष्फल है, जैसे पात्रविना अन्न निष्फल होता है, अर्थ यह जो संतजन तीर्थ आदिकते रहित पापस्थानों विषे डोया हुआ धन निष्फल होता है, जैसे समदृष्टिविना बोधनिष्फल होता है, जैसे वेश्याकी लज्जा निष्फल हैं, तैसे मैं पतिविना निष्फल हौं । हेभगवन्! जब शय्याबिछाय कार शयन करती हौं, तब फूल भी जल जाते हैं, जैसेसमुद्रको वडवाभि जलाती है, तैसे कमलोंको मेरे अंग जलाते हैं ॥ हे मुनीश्वर जो सुखके स्थान हैं, सो मुझको दुःखदायक भासते हैं, अरु जो मध्यस्थान हैं, सो न सुख देते हैं, न दुःख देते हैं, अरु जो सुखके स्थान हैं, सो भतके वियोगकारिके दुःखकी नाई हैं ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणकरणे विद्याधरीविशोकवर्णनं नाम शताधिकञ्यशीतितमः सर्गः ॥१८३॥