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(१४६४ ) योगवासिष्ठ । अभ्यासते तुम्हारी सृष्टिविषे आई हौं, ताते हे मुनीश्वर ! मेरे अरु मेरे भत्ताको शांति अर्थ आत्मज्ञानका उपदेश करौ, मेरा भत्त जो मनके स्थिर करनेको यत्न करता है, तिसको तुम ऐसा उपदेश करौ, जो शीघ्रही स्थिर होवै; अरु आत्मपदको प्राप्त होवे, अरु मुझको भी आत्मज्ञानका उपदेश करी ॥ हे भगवन् । तुम मायाते परे मुझको दृष्टिआते हो, इस कारणते मैं तुम्हारी शरण आई हौं, अरु मैं स्त्रीबुद्धिकरिके तुम्हारे निकट नहीं आई, शिष्यभावको लेकर आई हौं, अरु मैं जानती हौं कि, मेरा अर्थ सिद्ध हो रहा है, काहेते जो कोई महापुरुषकी शरण आय प्राप्त होता है सो भी निष्फल नहीं जाता, सब अर्थ संपूर्ण होता है, जैसा जिसका अर्थ होता है सो महापुरुष सिद्धकार देते हैं, जैसे कल्पवृक्षके निकट कोऊ जाता है, तिसका अर्थ पूर्ण होता हैं, तैसे मेरा अर्थ सफल हो जावैगा, ताले कृपा करके मुझको उपदेश करौ ॥ हे मुनीश्वर । तुम दयाके मानौ समुद्र हौ,सबके अर्थ संपूर्ण करनेको समर्थ हौ, अरु सुहृद हौ, अर्थ यह कि, उपकारकी अपेक्षाविना उपकार करते हौ, ताते मैं अनाथ तुम्हारी शरणकोआनि प्राप्त भई हौं, मुझकोआत्मपदकी प्राप्ति करौ ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे विद्याधरीवेगवर्णनं नाम शताधिकचतुरशीतितमः सर्गः ॥ १८४ ।। ‘शताधिकपंचाशीतितमः सर्गः १८५. विद्याधर्यभ्यासवर्णनम् । | वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! जब इसप्रकार विद्याधरीने मुझको कहा तब तिस कालमें आकाशविषे संकल्पका आसन मैंने रचा; तिसपर बैठा, अरु एक आधारभूतका आसन संकल्पकार तिसको बैठाई काहेते। जो हमारा शुद्ध संकल्प है; जो कछु चितवना कारये सो हो जाता है, तब मैं कहा ॥ हे देवी! तू कैसे कहतीहै, कि गिटीविषे हमारी सृष्टि है, गिटीविषे तुम्हारी सृष्टि कैसे वसती है सो कहो ॥ ॥ विद्याधर्युवाच ॥