पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/५८४

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विद्याधर्यभ्यासवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तरार्द्ध ६. (१४६५) हे भगवन् ! तुम्हारी सृष्टिविषे जो लोकालोक पर्वत, सो प्रसिद्धहै,तिसके उत्तरदिशा शिखरपर शिलाहै, तिस स्वर्णकी गिटीविषे हमारी सृष्टि हैं, जैसे तुम्हारी सृष्टि है, तैसे उस गिटीविषे सृष्टि वसती है, तिस सृष्टिका ब्रह्मा मेरा भर्तीहै, मैं तिसकी स्त्री हौं, अरु त्रिलोकी इसप्रकार वसती हैं, ऊध्र्वलोक देवता रहते हैं, पातालविषे दैत्य अरु नाग रहते हैं, मध्यमडलविषे मनुष्य अरु पशु पक्षी रहते हैं समुद्र भी हैं, पर्वत भी हैं, पृथ्वी जल तेज वायु आकाश हैं, समुद्ने गंभीरता अंगीकार करी है, जीवहुने प्राण अंगीकार किये हैं, पवनने आकाश विषे चलना अंगीकार किया है, आकाशने पोल अंगीकार किया है, पृथ्वीने धैर्य अंगीकार किया है, विद्याधरने ज्ञान अंगीकार किया है, अग्रिने उष्णता, सूर्यने प्रकाश अंगीकार किया है, दैत्योंने क्रूरता, विष्णुने अवतार अंगीकार किये हैं, जगतकी रक्षाके निमित्त नदीने चलना, पर्वतने स्थिरता अंगीकार करी है, इसप्रकार सब नीति परमात्माके आश्रय रची हुई हैं, कल्पपर्यंत ज्योंकी त्यों मर्यादा रहती है, इसप्रकार जीव जन्मते मरते हैं, देवता विमानपर आरूढ फिरते हैं, दिनका स्वामी सूर्य है, रात्रिका स्वामी चंद्रमा है, नक्षत्र तारेका चक्र पवनकारिकै फिरता हैं, अरु दो ध्रुव हैं, काल ईस चक्रको फैरता है, फेरता फेरता नाशरूप जो काल है, सो कल्पके अंतविषे कालचक्रके मुखमें जाय रहता है । हे मुनीश्वर ! परमात्मा अनंत है। अंत कोङ नहीं जान सकता, जब संवेदन फुरती है, तब जानाजाता है, कि यह जगत् ईश्वरकी सत्ताकारकै है, जब ऊरणेते रहित होता है, तब जाना नहीं जाता कि जगत् कहां गया ॥ हे मुनीश्वर ! तुम चलो, हमारी सृष्टिका बिलास देखौ, तुम तौ जगत्के विलासते पारको प्राप्त हुए हौ, यद्यपि तुमको इच्छा नहीं तो भी कृपा करिकै शिलाविषे हमारी सृष्टिको देखौ ॥ वसिष्ठ उवाच ।। हे रामजी। इसप्रकार कहकर आकाशमार्गमें ले चली, जैसे गंधको वायु ले जाता है, तैसे मुझको लेगई, तब दोनों आकाशमार्गमें उडे, भूताकाशविषे हम चिरकाल उड़ते गए, हमको लोकालोक पूर्वत दृष्ट आया, तिसके निकट ज़ायकार: