पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/५८८

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- - प्रत्य० प्र० जगन्निराकरणवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तराई ६. ( १.४६९) पदार्थ सिंद्ध नहीं होता ॥ हे सुनीश्वर ! जो आत्मरूपी इष्टको त्यागिकरि अपर किसी पदार्थकी वांछा करता है, सो अनिष्टते अनिष्टको पाता है नरकते नरकको भोगता है ॥ हे मुनीश्वर 1 जिसको अभ्यासकाभी अभ्यास प्राप्त भया है, तिसको शीघ्रही आत्मपदकी प्राप्ति होवैगी, अभ्यासके बलकर इष्टको पाता है, जैसे प्रकाशकार पदार्थ देखिये जो वह पडा है, तिसका नाम अभ्यास है, अरु देखकर जो तिसके निमित्त यत्न करना, तिसका नाम अभ्यासका अभ्यास है, जब यत्न अरु अभ्यास करता है, तब पदार्थको पाता है, वारंवार चितवनेका नाम अभ्यास है, जब ऐसा अभ्यास होवै, तब इष्ट पदार्थकी प्राप्ति होती है, अन्यथा नहीं होती ॥ हे मुनीश्वर | चौदह प्रकारके भूतजाते हैं, जैसा जैसे जिसको अभ्यास है, तिसके बलकार तैसा तैसा सिद्ध होता है, अभ्यासरूपी सूर्य है, तिसके प्रकाशकार अपने इष्टरूपी पदार्थको पाता है, अभ्यासके बलकार भय निवृत्त होता है,.पृथ्वी पर्वत वन कंदराविषे निर्भय होकार विचरता है ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे विद्याधर्यभ्यासवर्णनं नाम शताधिकपंचाशीतितमः सर्गः ॥ १८५॥ , शताधिकषडशीतितमः सर्गः १८६. प्रत्यक्षप्रमाणजगन्निराकरणवर्णनम् ।। विद्याधर्युवाच ॥ हे मुनीश्वर | जो कोऊ पदार्थ सिद्ध होता है, सो निरंतर अभ्यासकार सिद्ध होता है, तुम्हारा शिलाविषे दृढ निश्चय होता है, ताते तुमको शिला भासती है, अरु मुझको इसविषे सृष्टि भासती है; जब तुम्हारा संकल्प भी मेरे संकल्पसाथ मिलै, तब तुमकोभी जगत् भासै, यह जगत् जो स्थित हैं, सो मेरे अंतवाहकविपे है, अरु आदि वप्नु सबका अंतवाहक है, सो अंतवाहकविषे सबकी एकता है, जैसेसमुद्र विषे सब तरंगकी एकता होती हैं । हे मुनीश्वर | जब तुम धारणाका अभ्यास कारकै शुद्ध बुद्धिविषे प्राप्त होगे, तब तुमको शिलाविषे सृष्टि