पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/५८९

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योगवासिष्ठ । भासैगी ॥ वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! जब इसप्रकार मुझको शुद्ध युक्ति कही, तब मैं पद्मासन बाँधकार विषयते त्याग किया, अरु विषय जी कथाका क्षोभ था, तिसको भी त्याग किया, अपने अधिभूत भी त्याग किया, अरु निरंतर शुद्ध बोधका अभ्यास किया, तिस अभ्यासके बलकार मुझको बोधका अनुभव उदय हुआ, जैसे मेघके अभावते शरत्कालका आकाश निर्मल होता है, जैसे कलनाते रहित मुझको शुद्ध बोधका अनुभव उदय हुआ, सो कैसा बोध है, जो उदय अरु अस्तते रहित परम शतरूप हैं, तिसविषे शिला मुझको आकाशरूप दृष्टि आई, अरु शिला तत्त्वकरके भी दृष्ट आई, केवल बोधमात्र दृष्ट आई है, पृथ्वी आदिक तत्त्व सुझको कोऊ दृष्ट न आवै, केवल अद्वैत आकाश - आत्मतत्त्वमात्र अपना आपही दृषु आवै, जब बोधमात्रते अंतवाहकरूप होकर स्पंद फुरा, तब अंतवाहक कारकै शिलाविषे सृष्टि भासने लगी, जैसे मनोराज्यकी सृष्टि होती है, अरुबोधते भिन्न भिन्न नहीं होती तैसे सृष्टि मुझको दृष्ट आई, अरु शिला क्यारूप भासी, जैसे स्वप्नके गृहविषे शिला दृष्ट आवै सो अनुभवही शिला अरु गृहरूप होकार भासता है, इतर कछु नहीं होता, तैसे वह शिला दृष्ट आई ॥ हे रामजी। जैसे आकाशरूप वह शिला देखी, तैसे सब जगत चिदाकाश है, कछु द्वैत बना नहीं, सर्वदा काल आत्मसत्ताही अपने आपविषे स्थित है, अरु जो कछु द्वैत भासता हैं, सो आत्माके अज्ञानकारिकै भासता है, जैसे कोऊ पुरुष स्वमविषे अपना शिर काटा देखता है, अरु रुदन करता है,बहुर जाग उठा, तब आपको ज्योंका त्यों आनंद देखता है, तैसे जबलग अज्ञान निद्राविष सोता पड़ा है, तबलग जगद्धम मिटता नहीं, जब स्वरूप विध जागिकार देखेगा, तब सब भय मिटि जावैगा, केवल अपनाही आप भासैगा । हे रामजी ! यह आश्चर्य देख, जो वस्तु सत्रूप हैं,सो असकी नाईं भासती है, आत्मा सदा सतरूप है, सो ज्ञानकारकै भासता नहीं, अरु जो असरारूप है सो सलूकी नई हो भासती है, शरीरादिक दृश्य असतरूप हैं सो सत्वत् होकार भासते हैं ॥ हे रामचंद्र । आत्मा सदा प्रत्यक्ष है, अरु शरीरादिक परोक्ष हैं, अज्ञानकरिकै