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योगवासिष्ठ।

की नीति है, सो किसीसे लंघी नहीं जाती, उन योगेश्वरकी नीति इसप्रकार हुई है, अरु मेरा होना इसी प्रकार हुआ है, ईश्वरकी नीति अतुल है, उसविषे तुल्यता किसीको करी नहीं जाती, जहां जैसी नीति हुई है, तहां तैसीही है, अन्यथा किसीको नहीं होती, इसीप्रकार हमको भई है, जो कल्पकल्पविषे इसी पर्वतके वृक्ष ऊपर आलणा होता है, हम आय निवास करते हैं॥ वसिष्ठ उवाच॥ हे पक्षीके नायक! तुम्हारी अत्यंत दीर्घ आयु, ज्ञानविज्ञानकरि संपन्न हो, अरु योगीश्वर हौ, तुम अनेक आश्चर्य देखे हैं, तिनविषे जो स्मरणमें आता है, सो कहौ॥ भुशुण्ड उवाच॥ हे मुनीश्वर! एकवार ऐसे स्मरण आता है कि, पृथ्वीपर तृण अरु वृक्षही थे, अपर कछु न था बहुरि एक वार एकादश सहस्र वर्षपर्यंत भस्मही दृष्ट आवै जो वृक्ष तृण जलि गये, एक वार ऐसी सृष्टि हुई कि तिसविषे चंद्र सूर्य न उपजैं, दिन अरु रात्रिकी गति कछु जानिये नहीं कछुकछु सुमेरुके रत्नोंका प्रकाश होवैएक कल्प ऐसा हुआ है, कि देवताओं अरु दैत्योंका युद्ध हुआ, दैत्योंकी जीत भई, सब देवता तिनने मनुष्यकी नाईं हत किये. ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र तीनोंही देवता रहे, अपर सब सृष्टि इनने जीती, बीस युगपर्यंत तिनहीकी आज्ञा वर्ती, बहुरि एक वार चित्तमें ऐसे आता है, कि दो युगपर्यंत पृथ्वीपर वृक्षही रहे, अपर सृष्टि कछु न भासै, बहुरि एक वार दो युगपर्यंत पृथ्वीके ऊपर पर्वतही सघन हो रहे, अपर कछु न भास, अरु एक वार ऐसे हुआ, कि सब जलही हो गया, अपर कछु न भासै, एक सुमेरु पर्वत स्तंभेकी नाई भासे, अरु एक वार अगस्त्यमुनि दक्षिण दिशाते आया, अरु विंध्याचलपर्वत बढ़ा, सब ब्रह्मांड चूर्णकरि दिया, यह स्मरण आता है॥ हे मुनीश्वर! बहुत कछु स्मरण आता है, परंतु संक्षेपते सुनो, एक कालको सृष्टिविषे देवताही मनुष्य दैत्यादिक कछु न भासै, एक बार ऐसी सृष्टि हुई, कि ब्राह्मण मद्यपान करै अरु शुद्ध बडे हो बैठे, अरु जीवविषे विपर्ययही धर्म होवें, अरु एक बार ऐसीसृष्टि स्मरणमें आती है, कि पृथ्वीविषे पर्वत कोई दृष्टि न आवें, बड़ा उजाड़ही हो रहा, एक बार ऐसी सृष्टि हुई कि, सूर्य चंद्रमा नक्षत्र, लोकपाल कोई न उपजे