पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/५९०

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= = प्रत्य० प्र० जगन्निराकरणवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तरार्द्ध ६. ( १४७१) शरीरादिक प्रत्यक्ष भासते हैं, अरु आत्मपद परोक्ष भासता है॥ हेरामजी । आत्मा सदा प्रत्यक्ष है, जो कछु इस लोक अथवा परलोककी क्रिया सिद्ध होतीहै, सोआत्मसत्ताकारकै सिद्धहोतीहैं,अरु जो कछु प्रत्यक्ष प्रमाणकार जगत् भासताहै,सो आत्मसत्ताकारकै भासता है,आदि प्रत्यक्ष आत्माहीही अपर सब कछु आत्माके पाछे जानाजाता है, जो पुरुष कहते हैं, आत्मा योगकार प्रत्यक्ष होता है, अरु मनकार प्रत्यक्ष होता है, सो मूर्ख हैं, आत्मा सदा प्रत्यक्ष है, अरु प्रत्यक्ष आदिक प्रमाण भी आत्माकार सिद्ध होते हैं, यही माया है, जो सदा अपरोक्ष वस्तु आत्मा है, तिसको परोक्ष जानना, अरु जो शरीरादिक असत् हैं, तिनको सत् मानना ॥ हे रामजी। जेते कछु जीव तिनका बास्तवरूप ब्रह्मही है, तिनविषे आदि । हुना अन्तवाहकरूप हुआ है, तिसके अनंतर अधिभूतक भासने लगा है, भ्रमकारकै अधिभूतकको अपना आप जानते हैं, अरु जो सदा निर्विकार निराकार निर्गुण स्वरूप है, अपना आप अनुभवरूप है, तिसको कोऊ नहीं जानते, आदि शरीर सर्व जीवका अंतवाहक है, सो शुद्धआत्माका किंचन है, केवल आकाशरूप है, कछु बना नहीं, संकपकारकै अधिभूतता दृढ़ हुई है, सो मिथ्या भ्रांतिकारि भासती हैं, जैसे स्वप्नविषे अधिभूतक शरीर भासता है, तैसे जागृतविषे अधिभूत शरीर भासता है, अरु अंतवाहक अविनाशी है, इसलोक परलोकविषे इसका नाशनहीं होता, वास्तव बोधस्वरूपते इतर कछु नहीं, भ्रमकारकै अधिभूत दृष्ट आता है, जैसे सूर्य की किरणोंविषे जल भासता है, जैसे सीपीविषे रूपा भासता है, जैसे जेवरीविषे सर्प भासता है, जैसे आकाशविर्षे दूसरा चंद्रमा भासता है, तैसे भ्रमते अपनेविषे अधिभूत शरीर भासता है ॥ हेरामजी ! यह आश्चर्य है, जो सत् वस्तु है सो असत् हो भासती है, अरु जो असत् वस्तु है, सो सत् होकार भासती है, सो अविचारते जीवको भासती है, यह मोहका माहात्म्य है, जो सबके आदि प्रत्यक्ष आत्मा है, तिसको अप्रत्यक्ष जानते हैं, अप्रत्यक्ष जगत्को प्रत्यक्ष जानते हैं । हे रामजी! जेता कछु जगत् है, सो भ्रमकारकै भासता है, स्वप्रकी नई मिथ्या है, जिनविषे पदार्थको सुखरूप मानता है सो