पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/५९२

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शिलांतरवसिष्ठब्रह्मसंवादवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तराई ६. (१४७३) भासता है ॥ हे शशी । यह जगतसल पक्ष ३. काते जो इक्षियोंक प्रत्यक्ष होता है, जो नेत्र होते हैं, तौ रूप भासते हैं, जो नेत्र न होवें तौ न भासें, इसप्रकार सब इंद्रियोंके विषय हैं, जो होवें तौ भासें, नहीं तौ न भासे, अरु आत्मा सदा प्रत्यक्ष है, उसके देखनेविषे किसकी अपेक्षा नहीं चाहती ।। हे रामजी । जो इंद्रियोंकार सिद्ध होवे सो असत्य क्यों हुआ,जगतही असत् हुआ, तिसके पदार्थ सत् कैसे होवें, ताते इस जगत्की सत्यता त्यागिकारि शुद्ध बोधविषे स्थित हो । | इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे प्रत्यक्षप्रमाणजगन्निराकरणं नाम शताधिकषडशीतितमः सर्गः ॥ १८६ ॥ शताधिकसप्ताशीतितमः सर्गः १८७. शिलांतरवसिष्ठब्रह्मसंवादवर्णनम् । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी । मैं उस शिलाको देखत भयो, जब बोध दृष्टिकार देखौं, तब मुझको ब्रह्मरूप भालै, अरु जब संकल्प दृष्टिकार देखौं तब जगत् दृष्ट आवै, पृथ्वी द्वीप समुद्र पर्वत लोक अरु लोकपाल सूर्य चंद्रमा तारागण पाताल जगत् सब दृष्ट आवै, जैसे दर्पणविषे प्रतिबिंब भासता है, जैसे आत्मरूपी आदर्शविषे जगत् भासै, तब देवीने, शिलाविषे प्रवेश किया, मैंने भी संकल्परूपी शरीरकर प्रवेश किया, दोनों जगतके व्यवहारको लंघते गये; जहाँ परमेष्ठी ब्रह्माका स्थान था, तही हम जाय बैठे, तब देवीने कहा, हे भगवन् ! तुम ऐसे कहना कि, मुझको यह ले आई है, उसके ताई तुम विवाह निमित्त उपजाई, बहार क्यों इसका त्याग किया, यह तुम पूछना ॥ हे मुनीश्वर ! इसने मेरे ताई विवाहके अर्थ उत्पन्न करी थी, जब मैं बड़ी हुई तब उसने मेरा त्याग किया है, तिसको वैराग्य उपजा है, तिसको देखिकार अब मेरे ताई भी वैराग्य उपजा है, इसीते हम परमपकी इच्छा रखते हैं, जहां न द्रष्टा है, न इश्य है, न शून्य है, केवल शतरूप है, जो सर्गके आदि