पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/५९४

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शिलांतरवसिष्ठब्रह्मसंवादवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तरार्द्ध ६. ( ३४७५) अजर अमररूप हौं, अरु मेरेविषे उदय अस्त कदाचित् नहीं, मैं परम आकाशरूप हौं, अरु अपने आपविध स्थित हौं, न मेरी कोङ स्त्री है, न मैंने किसीकी उत्पत्ति कीनी है, तथापि जैसे वृत्तांत हुआ है, तैसे मैं कहता हौं, काहेते कि, महापुरुषके विद्यमान ज्योंका त्यो कहना योग्य है । हे मुनीश्वर । आदि शुद्ध चिदात्मा चिन्मात्रपद है, तिसका वचन अहं होकार फुरा हैं, जो मैं हौं, तिसका नाम आदि ब्रह्मा है, सो मैं हौं, कैसा ब्रह्मा है, जैसा भविष्यत् सृष्टिका होवे, अर्थं यह जो संकल्परूप द्रष्टा अरु संकल्परूप मैं हौं, अरु वास्तवते क्या है, आकाशरूप हौं, सदा निराकरण हौं, अरु अपने आपहीविषे मेरी अहंप्रतीति है, तिसविणे आदि जो संकल्पका ऊरणा हुआ है, तिसकर जगद्धम रचा है, तिस जगद्धमविषे मर्यादा हुई है, अरु संकल्पका जो अधिष्ठाता यह ब्रह्म शक्ति है, सो भी शुद्ध है ॥ हे मुनीश्वर। तिस मर्यादाको सहस्र चौकडी युगकी बीती हैं, अब कलियुग है, कल्पकी भी अरु महाकरुपकी भी मर्यादा पूरी भई है, तिसकरि मुझको परमचिदाकाशविषे स्थित होनेकी : इच्छा भई हैं, ताते इसको विरस जानकार त्याग किया है, जब इसका त्याग करौं, तब निर्वाणपदको प्राप्त होवौं, काहेते कि, यह मेरी इच्छा वासनारूप है, जो वासनाका त्याग होवै तौ निर्वाणषद प्राप्त होवै, अरु यह जो चित्तकला शुद्ध है, इसने धारणा अभ्यास किया था, तिसकरि अंतवाहक शक्ति इसको प्राप्त भई है, अंतवाहक शक्तिकरि आकाशविर्षे ऊरा है, अरु संसारते विरक्त भई है, आकाशमार्गविषे इसको तुम्हारी सृष्टि भास आई, अरु परमपद पानेकी जो इच्छा हुई थी तिस वासनाकार इसको तुम्हारी संगति प्राप्त भई, परमपद पानेकी इच्छा इसको हुई है, ताते तुम्हारी शरणको प्राप्त भई है, अरु तुमको ले आई है, जो श्रेष्ठ हैं, तो बडेकी शरण जाते हैं, अपने कल्याणके निमित्त तुमको ले आई है । हे मुनीश्वर ! यह मेरी वासनाशक्ति है, आगे मैं इसको मूर्तिरूप उत्पन्न करी थी, तब इस जगजालको रची थी, अब मुझको निर्विकल्प निर्वाणपकी इच्छा भई है, तिसकारकै मैं इसका त्याग किया है, अब इसको भी वैराग्य उपजा है, इस कारणते तुम बोधस्वरूपकी शर